जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सोशल वर्क डिपार्टमेंट के एक अध्ययन में जेलयाफ्ता लोगों के बच्चों ने बताया कि कुछ अपवादों को छोेड़ कर, उन्हें इस ‘कलंक‘ की वजह से अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और शिक्षकों से उपहास, उत्पीड़न जैसी असंवेदनशीलता का सामना करना पड़ता है।
‘इन्कार्सरेट पेरंट्स प्रीडिक्टर्स .. डिसआॅक्सेंट्स आॅफ साइको-सोशल हेल्थ इन चिल्ड्रन‘ नामक किए गए एक अध्ययन में विभिन्न इलाकों में रहने वाले ऐसे 6 से 18 साल तक के 72 बच्चों से, उनके पूर्व और वर्तमान के अनुभवों के आधार पर गहन संवाद के बाद यह बात सामने आई है। यह अध्ययन 1 जून, 2017 से दिल्ली और दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में किए गए।
यह शोध कार्य प्रो नीलम सुखरामणी की अगुवाई में हुआ। डा सिगमनी पन्नीर इसके सह शोधकर्ता हैं। टीम के अन्य सदस्यों में शिवांगी गुप्ता, नवनी गुप्ता और शहंशाह आलम हैं। इसे इंडियन काउंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च ने वित्तीय सहायता मुहैया कराई है।
अध्ययन से यह बात भी सामने आई कि घर को चलाने वाले के जेल चले जाने और आपराधिक न्यायिक प्रणाली की प्रक्रियाओं के चलते उनके परिवारों को भारी आर्थिक और सामाजिक कीमत चुकानी पड़ी।
कथित दोषियों के बच्चे होने के कारण उन्हें कुछ अपवादों को छोड़ कर अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और शिक्षकों तक से उपहास और उत्पीडऩ के असंवेदनशील रवैये ने कमज़ोर बना दिया।
अध्ययन में बताया गया कि माता पिता के जेल में रहने से उन्हें स्कूल छोड़ने पड़े या बार बार स्कूल बदलने पड़े । इसके अलावा उन्हें जटिल न्याय प्रणाली से जूझना पड़ा।
ऐसे बच्चों ने बताया कि उन्हें अपने जेल में बंद अपने माता पिता से मिलने और संपर्क रखने की अनुमति होती थी लेकिन वह इतनी जटिल है कि उससे निराशा और बढ़ती है।
अध्ययन में बताया गया कि ऐेसे बच्चों की देखभाल करने वाले परिवारों के पास भी सीमित साधन होते हैं जिससे उनकी ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकतीं।
इसमें कहा गया कि इस सबके बीच गैर सरकारी संगठन और अन्य तंत्र ऐसे बच्चों की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे संगठन सहानुभूति पूर्ण शिक्षक ,दोस्ताना लोग और रिश्तेदारों तक पंहुच बना कर उनके जीवन में कुछ मुस्कान लाने की कोशिश कर रहे हैं।
अध्ययन में पाया गया कि ऐसे बच्चों को जीवन यापन के लिए वित्तीय सहायता, शिक्षा और कल्याण योजनाएं उपलब्ध कराने संबंधी दिल्ली सरकार की योजना को लागू करने के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद, कुछ पेचीदा प्रक्रियाओं की वजह से उन्हें खास फायदा नहीं मिल पा रहा है।
जामिया मिल्लिया के सोशल वर्क विभाग ने 27 जून को नौकरशाहों, वकीलों, शिक्षाविदों और चिकित्सकों सहित समाज के विभिन्न लोगों के साथ अपने अध्ययन के निष्कर्षों को साझा किया और ऐसे बच्चों को उनकी वाजिब मदद उपलब्ध कराने के कारगर उपाय करने में मदद करने की अपील की।
इस कार्यशाला में दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग, बाल कल्याण समितियों, दिल्ली राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महिला एंव बाल विकास, समाज कल्याण विभाग, दिल्ली सरकार के प्रतिनिधियों, टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के सोशल वर्क विभाग, नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस, बेंगलुरू के शिक्षाविद, इंडिया विजन फाउंडेशन, काॅमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव और इंडियन काउंसिल आॅफ मेेडिकल रिसर्च सहित कई संस्थाओं के लोगों ने हिस्सा लिया।
अध्ययन के निष्कर्षों को विशेषज्ञों द्वारा बेहद प्रासंगिक पाया गया और न्यायपालिका, कानून व्यवस्था, जेल प्रणाली, पुलिस बल, बाल संरक्षण संस्थाओं, स्कूलों और शिक्षकों को ऐसे बच्चों के प्रति संवेदनशील बनाने के ठोस उपाय किए जाने पर ज़ोर दिया।
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