(कलीमुल हफ़ीज़)
लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सरकार की संवैधानिक जि़म्मेदारी भी है और ज़रूरत भी है। किसी मुल्क की तरक़्क़ी उस वक़्त तक मुमकिन नहीं जब तक कि उसके यहां मौजूद अल्पसंख्यकों की ज़ुबान, उनकी तहज़ीब, उनका दीन और उनके अक़ीदे सुरक्षित न हों। किसी मुल्क में अल्पसंख्यक जितने सुरक्षित होंगे वहां लोकतंत्र उतना ही मज़बूत होगा। यह देश की बदक़िस्मती है कि उसकी सत्ता जिन लोगों के हाथों में है वह चाण्क्य नीतियों के प्रेमी ही नहीं पूरी तरह उस नीति पर अमल भी कर रहे हैं। उनके लिए अख़लाक़ व किरदार की क्या हैसियत होगी जबकि वह मुल्क के संविधान की परवाह भी नहीं करते। संविधान के खि़लाफ़ काम करना, साज़िशी ज़हनियत और अल्पसंख्यकों से दुश्मनी के नज़ारे पिछले छ: साल से हम सब देखते चले आ रहे हैं। इसी संदर्भ में ताज़ा घटना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से संबंधित है।
8, अगस्त 2019 को केंद्र सरकार की ओर से गज़ट जारी किया गया है जिसमें ऐसे तमाम नियमों को Repeal/निरस्त किया गया है जो सरकार की नज़र में अनावश्यक थे। 1850 से लेकर 2017 तक ऐसे लगभग 62 एक्ट की एक लिस्ट पिछले संसद सत्र में सरकार ने यह बता कर रखी थी कि अब इन कानूनों की देश मे ज़रूरत नहीं है इसलिए उन्हें संविधान से निकाल देना चाहिए और उसे बहस कराए बग़ैर ही पास करा लिया गया। दोनों सदनों से यह बिल पास हुआ और राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद वह क़ानून बन गया तथा गज़ट भी प्रकाशित हो गया। अब उस लिस्ट में मौजूद तमाम एक्ट ख़त्म कर दिये गए। इस एक्ट का नाम The Repealing & Amending Act 2019 है। आप इसे गूगल पर देख सकते हैं। इस लिस्ट में 1981 में बनाए गये उस क़ानून को भी Repeal/निरस्त किया गया है जिसके अंतर्गत उस समय की इंदिरा गांधी सरकार ने AMU से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को निष्प्रभावी करने के लिए क़ानून में परिवर्तन किया था। जिसे The Aligarh Muslim University (Amendment) Act 1981 का नाम दिया गया था। इस एक्ट में यह बात साफ की गई थी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मुसलमानों के संसाधनों और स्रोतों से बनाई गई थी। यह हिंदोस्तानी मुसलमानों की तालीम और तहज़ीब के फ़रोग़/प्रसार के लिए बनाई गई थी। इसलिए यह अल्पसंख्यक संस्था है।
हम जानते हैं कि 1875 में मुहम्मडन एंगलो ओरिएण्टल कॉलिज एक स्कूल के रूप में शुरू हुआ। 1877 में इसे कॉलिज का दर्जा मिला और 1898 में सर सैयद अहमद खां रह० इस दुनिया से चल बसे। उस समय की ब्रिटिश सरकार ने इसे यूनिवर्सिटी का दर्जा देने के लिए इसके फ़ाउण्डर्स से तीस लाख रूपये के रिज़र्व फण्ड की शर्त रखी। कॉलिज को यूनिवर्सिटी बनाने के लिए मुसलमानों ने ख़ुद चंदा किया और तीस लाख रूपये उस दौर में जमा किए। 1920 में कालिज को यूनिवर्सिटी का दर्जा हासिल हुआ। 1951 और 1965 में यूनिवर्सिटी एक्ट में आंशिक संशोधन के ज़रिए उसके अल्पसंख्यक किरदार को सुरक्षित किया गया और संविधान के अनुसार आपसी सहयोग के रास्ते भी पैदा किए गये। इस के बाद 1967 में सुप्रीम कोर्ट में एक मुक़द्दमा दायर किया गया जो अज़ीज़ बाशा केस के नाम से जाना जाता है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि यूनिवर्सिटी एक राष्ट्रीय संपत्ति है इसलिए इसको अल्पसंख्यक संस्था नहीं माना जा सकता। उच्च्तम न्यायालय के इस फैसले के ख़िलाफ़ मुसलमानों ने प्रदर्शन किया और उस समय की इंदिरा गांधी सरकार ने संसद में बिल लाकर यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक किरदार को बहाल कर दिया। संसद के इस संशोधन के ख़िलाफ़ 2005 में कुछ लोग इलाहाबाद हाई कोर्ट चले गए। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फै़सले को अहमियत दी और संसद के संशोधन को मानने से इंकार कर दिया। इस नए घटनाक्रम के बाद यूनिवर्सिटी ने सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर दस्तक दी। यह दस्तक अभी जारी है यानी यह मुक़द्दमा विचाराधीन है। इसी मुक़द्दमा की सुनवाई के दौरान अदालत ने मरकज़ी सरकार से उसका पक्ष मालूम किया तो पिछली UPA सरकार ने 1981 act के अनुसार उच्चतम न्यायालय में हलफ़नामा दाख़िल किया कि यूनिवर्सिटी एक अल्पसंख्यक संस्था है और सरकार को इस पर कोई ऐतराज़ भी नहीं है। अब सरकार बदल गई तो NDA की सरकार ने अदालत से पिछले हलफ़नामे को बदलने की गुज़ारिश की जिसे अदालत ने मानने से इंकार कर दिया।लेकिन NDA हुकूमत ने दूसरे टर्म में 1981 में बने AMU ACT को ही निरस्त करने के लिए इसे Repeal List में शामिल करके बड़ी चालाकी से AMU के अल्पसंख्यक किरदार पर चोट लगाने की कोशिश की है। अब यह तो क़ानून के माहिर ही बता सकते हैं कि अदालत में विचाराधीन मुक़द्दमे से संबंधित क़ानून को Repeal भी किया जा सकता है कि नहीं?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हिंदोस्तानी मुसलमानों की तालीम के सिलसिले में रीढ़ की हड्डी की हैसियत रखती है। देश की तामीर व तरक़्क़ी में उसके योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अल्लाह त’आला सर सैयद अहमद खां रह० की क़ब्र को नूर से भर दे, आज हम सर सैयद रहमतुल्लाह अलैह की कोशिशों को देखते हैं तो दिल से उनके लिए दुआ निकलती है। सर सैयद रह०. न होते या उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी न बनाई होती तो मिल्लत की तालीमी सूरते हाल किस क़द्र ख़स्ताहाल होती उसका सिर्फ़ अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है। असलियत में सर सैयद रह० को यक़ीन हो चुका था कि हिंदोस्तान के लोग अंग्रेज़ों को किसी तरह शिकस्त नहीं दे सकते। अंग्रेज़ों की फौजी और प्रशासनिक शक्ति से ज़्यादा वह अंग्रेज़ों के साइंसी इल्म में तरक्की, इजीनियरिंग में महारत, नए आविष्कार, इल्मी कमालात और रोशन ख़याली से प्रभावित थे।
इस हक़ीक़त से कौन इंकार कर सकता है कि अलीगढ़ तहरीक ने मुसलमानों की तालीमी बदहाली के असर को कम करने में अहम रोल अदा किया है। सर सैयद रह० यह समझते थे और उनका ऐसा समझना ठीक ही था कि मॉडर्न एजूकेशन के बग़ैर मुसलमानों का ज़िंदगी और समाज के उच्च विभागों से रिश्ता ख़त्म हो जाएगा। इस कारण वे दूसरी क़ौमों ख़ासतौर पर अपने वतन के लोगों से बहुत पीछे रह जाएंगे। वह मॉडर्न एजूकेशन की मुख़ालफ़त को ख़ुदकुशी समझते थे। सर सैयद रह० की ख़्वाहिश थी कि एक ऐसी नस्ल तैयार हो जिसके एक हाथ में क़ुरआन हो और दूसरे हाथ में साइंस। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी सर सैयद की ख़्वाहिशों का प्रतीक है और उनके तालीमी ख़्वाब की ताबीर है। आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हज़ारों विद्यार्थी तालीम हासिल कर रहे हैं। देश में कई स्थानों पर उसके कैंपस हैं। लाखों नौजवान यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त करने के बाद देश व क़ौम की सेवा में व्यस्त हैं। हज़ारों तालीमी इदारे ए.एम.यू के पूर्व-छात्रों ने शुरू किए हैं।
मुसलमानों के विरोधियों की नज़र में यूनिवर्सिटी हमेशा कांटा बनकर खटकती रही है। आज़ादी के बाद से लगातार इसके अल्पसंख्यक-किरदार को लेकर हमले होते रहे हैं। कभी जिन्नाह की तस्वीर को इश्यू बनाकर यूनिवर्सिटी को देश विरोधी साबित करने की कोशिश की जाती है। कभी उसके अल्पसंख्यक-किरदार को लेकर मामलात संसद और अदालत में गूंजते रहते हैं। मोदी जी की हुकूमत ने जिस साज़िशी अंदाज़ से यूनिवर्सिटी के किरदार को ख़त्म करने की कोशिश की है वह इंसानित, नैतिकता और संविधान की आत्मा के ख़िलाफ़ है। इसका हल यह है कि सवैधानिक तौर पर इस नए क़ानून को चुनौती दी जाए, AMU के पूर्व छात्र और विद्यार्थी इसके ख़िलाफ़ सड़क से लेकर संसद तक प्रदर्शन करें और इसका हल यह भी है कि संपन्न लोग देश के दूसरे इलाक़ों में मुस्लिम यूनिवर्सिटियां क़ायम करें। मौजूदा सरकार हिंदुत्व के कार्यक्रम पर चल रही है उसके बुरे नतीजे बाज़ार में मंदी और मॉब-लिंचिंग की सूरत में नज़र आ रहे हैं। अभी आगे और भी नतीजे सामने आएंगे। क्या सर सैयद रहमतुल्लाह अलैह की कोशिशों और मिल्लत की क़ुरबानियों को यूं ही भुला दिया जाएगा और हम तमाशा देखते रहेंगे? मेरी क़ानून के जानकारों, AMU बिरादरी और विद्वानों से गुज़ारिश है कि वह ख़्वाब-ए-ख़रगोश से जाग जाएं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ख़तरे के साये में है, उसके किरदार और संवैधानिक सुरक्षा के लिए हर मुमकिन प्रयत्न करें।
कलीमुल हफ़ीज़-कन्वीनर, इंडियन मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स फ़ोरम, जामिया नगर, नई दिल्ली-25
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