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जब हम मजदूर-किसानों का राज लाएंगे तो यह पूरी पृथ्वी सुकून की सांस लेगीः बिरजू नायक

यह साक्षात्कार दक्षिणी दिल्ली लोकसभा उम्मीदवार बिरजू नायक से प्रणव एन द्वारा लिया गया है जन्म तो मेरा उड़ीसा के बेहरामपुर में हुआ, लेकिन पांच साल का था, तभी हम लोग दिल्ली आ गए। ओखला की संजय कॉलोनी में मेरा बचपन बीता। पिता मजदूर थे। उनकी भरसक कोशिश रहती थी कि हमें खाने-पहनने में दिक्कत न हो, लेकिन जब संसाधन ही सीमित हों तो सिर्फ इच्छा के बल पर कितना हो सकता है, आप भी समझ सकते हैं। स्लम की जिंदगी की हकीकत से आप भी वाकिफ ही हैं।

By: वतन समाचार डेस्क
बिरजू नायक

44 साल के बिरजू नायक हिन्दोस्तान  की कम्यूनिस्ट गदर पार्टी के सदस्य हैं  और 2019 लोकसभा चुनाव में दक्षिण दिल्ली से चुनाव लड़ रहे हैं। देश में मजदूरों और किसानों का राज लाने को प्रतिबद्ध कम्यूनिस्ट गदर पार्टी के टिकट पर पहले भी चुनाव लड़ चुके बिरजू नायक अपनी सबसे बड़ी ताकत यह बताते हैं कि ‘मैं मजदूर का बेटा हूं और न मरने से डरता हूं, न हारने से’ और यह भी कि ‘मेरे पास खोने को कुछ नहीं है।’ यह ताकत और यह सोच उनकी जिंदगी को ही एक लड़ाई में बदल चुकी है। जाहिर है, चुनावी लड़ाई भी उनके लिए दक्षिण दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं तक सीमित नहीं है। बिरजू नायक खुद को मजदूर वर्ग का प्रतिनिधि प्रत्याशी मानते हैं और कहते हैं कि उनका मकसद इस चुनावी लड़ाई के जरिए मजदूर वर्ग के राजनीतिक एजेंडे को सामने लाना है। प्रस्तुत हैं बिरजू नायक से हाल ही में हुई प्रणव एन की लंबी बातचीत के मुख्य अंशः

 

सवालः शुरू से ही शुरू करते हैं बिरजू भाई। अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताएं। जन्म कहां हुआ, बचपन कैसे माहौल में गुजरा?

 

जवाबः जन्म तो मेरा उड़ीसा के बेहरामपुर में हुआ, लेकिन पांच साल का था, तभी हम लोग दिल्ली आ गए। ओखला की संजय कॉलोनी में मेरा बचपन बीता। पिता मजदूर थे। उनकी भरसक कोशिश रहती थी कि हमें खाने-पहनने में दिक्कत न हो, लेकिन जब संसाधन ही सीमित हों तो सिर्फ इच्छा के बल पर कितना हो सकता है, आप भी समझ सकते हैं। स्लम की जिंदगी की हकीकत से आप भी वाकिफ ही हैं। मेरे शुरुआती जीवन के हालात को सक्षेप में आप इस एक तथ्य से समझिए कि हमारे माता-पिता को कुल 11 संतान हुई, लेकिन हम सिर्फ दो भाई-बहन हैं- एक भाई, एक बहन। सब जन्म के कुछ समय बाद चल बसे।

 

सवालः स्कूली जीवन को किस रूप में याद करते हैं?

 

जवाबः पढ़ाई में मैं अच्छा था। टीचर्स इस वजह से मुझे मानते थे। लेकिन शैतानी मैं कम नहीं करता था। बागी तेवर शुरू से ही आ गया था। हम रहते थे बस्ती (संजय कॉलोनी) में, हमारा स्कूल डीडीए फ्लैट्स कालकाजी में था। अगर कोई झुग्गी वाला कहता तो मुझे बहुत गुस्सा आता था। इस वजह से मार पीट भी हो जाती थी जब-तब। टेंथ का रिजल्ट बहुत अच्छा नहीं हुआ मगर पढ़ने में मेरी रुचि बनी रही। सिलेबस से अलग साहित्य पढ़ना भी मेरा जारी रहा। किताबें खरीदने के पैसे तो नहीं होते थे, पर दोस्तों से लेकर और फिर एक्सचेंज करके मैं काफी पढ़ लेता था। एक दिलचस्प वाकया बताऊं। शायद तब मैं नौवीं में था। एक दोस्त के जरिए प्रेमचंद का उपन्यास ‘निर्मला’ मेरे हाथ लगा और मैं उसे घर लाया पढ़ने। किताब के कवर पर एक युवती की तस्वीर थी। मेरे माता-पिता प़ढ़े-लिखे नहीं थे। शायद पड़ोस के किसी शख्स ने उनसे मेरे चाल-चलन को लेकर कुछ कह भी दिया था। किताब देखते ही वह भड़क गए, कि ऐसी गंदी किताबें पढ़ने लगा है। मैं कहता रहा कि ये हिंदी के बहुत बड़े लेखक की किताब है, पर कोई सुनवाई नहीं। अच्छी खासी धुनाई हुई मेरी उस दिन।

 

सवालः राजनीति में कैसे आए?

 

जवाबः पार्टी (हिन्दोस्तान की कम्यूनिस्ट गदर पार्टी) से मेरा जुड़ाव तो पढ़ाई के दौरान ही हो गया था। मगर अन्य गतिविधियां भी चलती रहीं। अन्य धाराओं से भी परिचय हुआ। माओवादियों के भी संपर्क में आया। थिएटर भी किया। हबीब तनवीर के साथ अच्छा जुड़ाव रहा। कई एनजीओ में काम किया। इस बीच पार्टी तेजी से मेरी राजनीतिक चेतना बढ़ा रही थी।

 

मैंने नौजवानों को संगठित करने के लिए नुक्कड़-नाटक और तरह-तरह के राजनीतिक शिक्षा-प्रशिक्षण के कार्य किये। मैंने पानी, शौच प्रबंध आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए अपने इलाके के निवासियों को संगठित करने के काम को पूरे जोश के साथ उठाया। इस तरह, पार्टी के राजनीतिक और संगठनात्मक काम और जन संघर्षों में मेरी सक्रियता बढ़ती गयी। फिर न जाने कब, मैं पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया।

 

सवालः पार्टी ने ही आपको इस बार लोकसभा चुनाव में उतारा है और आप खुद को मजदूर वर्ग का प्रत्याशी बताते हैं। तो यह बताइए कि अन्य प्रत्याशियों से आप किन बातों में अलग हैं?

 

जवाबः अंतर आप कई बातों में देख सकते हैं। पहले वैयक्तिक स्तर पर देखें, तो मैं राजनीति को निजी उन्नति के मौके की तरह नहीं लेता। हम मेहनतकशों का राज लाने के अपने लक्ष्य और अपनी पार्टी के सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। आज कांग्रेस की जय-जय तो कल बीजेपी की वाह-वाह जैसी प्रवृत्ति आपको अन्य प्रत्याशियों में मिलेगी, उसका यहां नामो-निशान नहीं दिखेगा।

 

इसी वजह से आपको हमारी बातों में एकरूपता दिखेगी। लोगों को ताकत देने की बात हमारे लिए सिर्फ बात नहीं है। हम जो कहते हैं उसे हासिल करने की जद्दोजहद में पीछे नहीं रहते। अपनी मांगों को लेकर हम लड़ते भी हैं, सड़कों पर भी उतरते हैं। यानी हमारी कथनी और करनी में आपको कोई फर्क नहीं दिखेगा। यह अहम कसौटी है जिस पर आप अन्य तमाम प्रत्याशियों से बिल्कुल अलग पाएंगे हमें।

 

सवालः इन चुनावों में आपकी हार-जीत मजदूर वर्ग के लोगों के लिए कितनी अहम है? आपको वोट देकर जिताना उनके लिए किन-किन रूपों में फायदेमंद हो सकता है?

 

जवाबः देखिए ये तो तय है कि जीत भी गया तो आंकड़ों के लिहाज से मैं एक इंडिविजुअल ही रहूंगा। 543 सांसदों में महज एक। लेकिन मेरा फोकस न केवल अपने क्षेत्र के बल्कि देश और दुनिया के मजदूर वर्ग के हितों पर रहेगा। अपने क्षेत्र के एक-एक व्यक्ति की जरूरतों को तो संसद में उठाऊंगा ही, जनहित से जुड़े मुद्दों पर अन्य सांसदों के साथ मिलकर काम करने में भी मुझे कोई हिचक नहीं रहेगी। सबसे बड़ी बात यह कि देश की राजनीति को मजदूर वर्गीय चेतना से जोड़ने का काम मेरी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रहेगा ताकि सरकार नीति बनाते समय मजदूरों-किसानों और आम मेहनतकशों की अनदेखी न कर सके। इन सबके साथ ही मैं यह भी बताना चाहूंगा कि मुझे मालूम है, देश में मजदूर-किसान राज स्थापित करने का जो हमारा सर्वोच्च लक्ष्य है, वह मेरी चुनावी जीत से हासिल नहीं होने वाला। मगर संसद पहुंच कर मैं उस मंच पर भी अपनी इस लड़ाई को आगे बढ़ाने का जतन करता रहूंगा ताकि देश-दुनिया में मजदूर-किसान-मेहनतकश की आवाज दूर-दूर तक पहुंचे।

 

इसका मतलब यह नहीं है कि अपने क्षेत्र के लोगों की दिक्कतों पर से मेरा ध्यान हट जाएगा। साउथ दिल्ली यूं तो देश की सबसे हाई-फाई लोकैलिटी में मानी जाती है। लेकिन मैं बताऊं कि इस चुनाव क्षेत्र में भी लोग ऐसी-ऐसी परेशानियां झेल रहे हैं जो दूर-दराज के गरीब इलाकों के लोग झेलने को मजबूर हैं। उदाहरण के लिए पानी की समस्या को लें।  इसी क्षेत्र में संजय कॉलोनी, संगम विहार और भाटी माइंस जैसे तमाम इलाके हैं जहां आज भी लोग पीने के पानी जैसी बेसिक समस्या से जूझ रहे हैं।

 

सवालः मगर इस समस्या पर तो अन्य दल भी बोलते हैं। तमाम प्रत्याशी इन मुद्दों को उठाते हैं और कई क्षेत्रों में इन्हें दूर करने की कोशिश भी होती है, ये सुविधाएं मुहैया भी कराई जाती हैं…

 

जवाबः आप सही कह रहे हैं। अन्य पार्टियां भी इन सवालों को उठाती हैं और कुछ मामलों में इन्हें हल भी करती हैं। मगर दूसरे दलों के नजरिए में और हमारे नजरिए में एक महत्वपूर्ण फर्क है जिस पर ध्यान देना चाहिए। अन्य दल और प्रत्याशी जो भी सुविधाएं लोगों को दिलाते हैं, वे एहसान बतौर दिलाते हैं जबकि हम उन्हें अधिकार बतौर दिलाएंगे वे सुविधाएं। हमारा साफ कहना है कि आप बस्तियों को लीगल कहें, इल्लीगल कहें, पर किसी भी परिवार को बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित कैसे कर सकते हैं? आज सरकारें और पार्टियां इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने के मकसद से बस्तियों को लीगलाइज करने की बात कहती हैं। इसका मतलब यह है कि जो बस्तियां वैध नहीं घोषित होंगी वहां के लोगों का कोई हक इन सुविधाओं पर नहीं माना जाएगा। हम इस सोच और इस व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। हमारा कहना है कि बुनियादी सुविधाएं हर व्यक्ति को, हर परिवार को बिना शर्त मिलनी चाहिए और यह उनका अधिकार है।

 

सवालः चूंकि इन चुनावों में आप मजदूर किसान मेहनतकश आबादी की नुमाइंदगी कर रहे हैं, तो अन्य क्षेत्रों में रह रहे इन वर्गों के वोटरों से आप क्या कहेंगे? जहां से आप नहीं लड़ रहे हैं वहां उनकी भूमिका कैसी होनी चाहिए?

 

जवाबः मेरा और हमारे संगठन का कहना है कि जो भी संगठन इन मेहनतकश अवाम के बीच काम कर रहे हैं उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों से प्रत्याशी खड़ा करना चाहिए। कोई भी चुनाव क्षेत्र ऐसा नहीं रहना चाहिए जहां पूंजीवादी अमीरपरस्त पार्टियों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया गया हो। यह हमारी सोच है और इच्छा है। खबर मिल रही है कि कई क्षेत्रों से ऐसे संगठन, जो लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते आये हैं, इन चुनावों में प्रत्याशी खड़े कर रहे हैं। उन क्षेत्रों में तो मतदाता निश्चय ही उन्हें वोट दें। जिन सीटों पर ऐसे प्रत्याशी नहीं हैं, वहां आम मेहनतकश लोगों को अपने मुद्दों पर जोर देना चाहिए। यह मेहनतकश तबकों की ताकत कहिए कि कोई भी दल या प्रत्याशी खुलेआम इनकी अनदेखी करने की हिम्मत नहीं कर सकता। बड़ी से बड़ी पूंजीपरस्त पार्टी का प्रत्याशी भी दावा यही करता  है कि वह इन आम मेहनतकश जनता के हितों को पूरा करेगा । वे ऐसा कहते हुए और इसका एकदम उलटा करते हुए बच इसलिए निकलते हैं क्योंकि आम मेहनतकश आबादी के पास उनसे सवाल करने, उन्हें जवाबदेह ठहराने या उन्हें उन पदों से हटाने का कोई साधन नहीं होता। पार्टियां इन्हें बहलाने के लिए बहस को इनके ठोस हितों से अलग जाति, धर्म और राष्ट्र से जुड़े भावनात्मक सवालों की ओर लेकर चले जाते हैं। ये पार्टियाँ माहिर हैं, लोग जो सुनना चाहते हैं वैसा कहने में और फिर ठीक उसका उल्टा, यानि टाटा-बिरला-अम्बानी आदि  जो चाहते हैं वैसा करने में।  ये पार्टियां ऐसा भी कह देती हैं कि  बड़े-बड़े पूंजीपतियों को सस्ती मजदूरी की गारंटी देना और जब जिसे चाहें काम से निकालने का अधिकार देना भी मजदूरों के हित में है। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर इस तरह के प्रावधान करते हुए वे इसे देशहित में बताती हैं और दावा करती हैं कि इससे देश का बहुत विकास होगा। जबकि ये सीधे तौर पर देश की मेहनतकश आबादी के हितों की बलि देने वाले कदम हैं।

 

सो जिन क्षेत्रों में इन वर्गों का कोई प्रत्याशी नहीं है मुकाबले में, वहां इन वर्गों के बीच काम कर रहे संगठनों और उनसे जुड़े लोगों को चाहिए कि जो भी प्रत्याशी प्रचार के लिए या वोट मांगने के लिए आएं उनसे अपने हितों से जुड़े सवाल करें। उन सवालों पर उनका और उनकी पार्टी का स्टैंड बताने को कहें, उनसे प्रतिबद्धता लें और फिर उन पर नजर रखें ताकि जीतने के बाद वे इन मसलों पर चुपके से अपना स्टैंड बदल न लें। हमें यह लड़ाई चुनावों के दौरान ही नहीं, बल्कि हर दिन लड़नी है और हर दिन थोड़ा-थोड़ा जीतते हुए इसे आगे बढ़ाना है।

 

सवालः देश में आजादी के बाद विकास का जो मॉडल अपनाया गया, उसके जरिए अब तक हासिल विकास को आप क्या कहेंगे? इस विकास प्रक्रिया से आपकी सबसे बड़ी आपत्ति क्या है?

 

जवाबः इसमें कोई संदेह नहीं है कि आजादी के बाद सत्ता सरमायेदार वर्ग के हाथों में गई। जो मॉडल चुना गया अर्थव्यवस्था का वह टाटा-बिड़ला प्लान पर आधारित था। जाहिर है सरमायेदार वर्गों का हितसाधन ही उसका मकसद था। जो भी योजनाएं बनीं, जो भी बड़े कदम उठाए गए इस प्रक्रिया में उसके केंद्र में इन्हीं सरमायेदार वर्गों इन्हीं पूंजीवादी ताकतों को आगे बढ़ाना था। इसका मतलब यह नहीं है कि आम लोगों का इनसे कुछ भी भला नहीं हुआ। मगर जो भी भला हुआ, वह इनकी भलाई के साइड इफेक्ट के रूप में हुआ। अब बाजार का विकास करना भी इन पूंजीवादी ताकतों की जरूरत थी। उसके लिए समाज के अलग-अलग हिस्सों की क्रय शक्ति बढ़ाना भी उनकी जरूरत थी। लिहाजा ऐसे भी कदम उठाए गए जो पहली नजर में लोगों को अपने हित में उठाए गए कदम प्रतीत हुए। पूंजीपरस्त राजनीति ने इनका ढोल पीटने में भी कोई कोताही न बरती जिससे लोगों को लगे कि उनके हितों को केंद्र में रखकर ही सरकार काम कर रही है। लेकिन पूरे क्रम पर आप गौर करेंगे तो साफ हो जाएगा कि आम मेहनतकश जनता का जीवन किसी की प्राथमिकता में नहीं था। इसीलिए आजादी के बाद के करीब चार दशक सरकारी नीतियों की दिशा देसी पूंजीपतियों को बढ़ावा देने की थी और उस लिहाज से बाजार विकसित करने, इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने का काम हो रहा था। मगर जब देसी पूंजीपति इतने मजबूत हो गए कि वैश्विक पूंजीपतियों से टक्कर ले सकें, उनके साथ हाथ मिला सकें और उनसे प्रतिस्पर्धा कर सकें तो फिर अर्थव्यवस्था के द्वार खोल दिए गए ताकि बाहरी पूंजी देश में और देश से पूंजी बाहर बेरोकटोक आ-जा सके। नब्बे के दशक के बाद से हम देखते हैं कि सरकारी नीतियों की पूरी दिशा ही बदल गई। खुलेआम देश-विदेश के बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के हितों की रक्षा करने और मजदूर-मेहनतकशों के सारे अधिकारों का एक-एक करके हनन करने की दिशा अपनाई जाने लगी।  आज देश के हर कोने में मजदूर-किसान सडकों पर उतरकर अपनी मांगें बुलंद कर रहे हैं। परन्तु उनकी मांगों पर ध्यान देने की किसी सरकार को फुरसत ही नहीं है। उनकी आवाज़ को बलपूर्वक खामोश कर दिया जाता है।

 

आपने पूछा है कि विकास की इस प्रक्रिया से हमारी मूल आपत्ति क्या है? मूल आपत्ति यही है कि इसके केंद्र में इंसान नहीं है, उसकी जिंदगी नहीं है, उसकी जरूरतें नहीं हैं। इसके केंद्र में पूंजी है, पूंजी का मुनाफा है। पूंजीवादी अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि आजादी के बाद से अब तक गरीबी काफी कम हुई है। लेकिन मूल सवाल गरीबी का नहीं है। सवाल है बराबरी का। सवाल है सबको इंसानी हक मिलने का। करीब डेढ़ सौ परिवार हैं आज जो हर चीज पर अपना नियंत्रण रखे हुए हैं, सारे फैसले उन्हीं की मर्जी से और उनकी इच्छा के अनुरूप हो रहे हैं। आजादी के बाद से अब तक देश का जितना भी विकास हुआ है अगर उस विकास में समाज के सभी तबकों को न्यायपूर्ण हिस्सा मिलता तो क्या हमारे समाज की वही स्थिति होती जो आज है? एक तरफ खाली पड़ी बड़ी-बड़ी कोठियां और दूसरी तरफ सर्दी-गर्मी-बरसात खुले आसमान के नीचे झेलने को मजबूर बेघर लोग। एक तरफ हेलिकॉप्टर और द्वीप खऱीदते थैलीशाह तो दूसरी तरफ  रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जलील होते लोग। सवाल इंसानी समाज के माथे का कलंक बनी इन स्थितियों से हमेशा के लिए छुटकारे का है। और हम इससे कम किसी भी चीज पर मानेंगे नहीं।

 

सवालः अगर कल को आपके सपनों की व्यवस्था आ जाती है, मजदूरों-किसानों का शासन स्थापित हो जाता है तो जो खुद को मजदूर-किसान नहीं मानते हैं, उनका जीवन किस तरह से प्रभावित होगा? उन्हें क्या नफा-नुकसान होगा मजदूर-किसान के शासन से?

 

जवाबः जब मजदूर-किसान का शासन  स्थापित होगा, तो जो अपने आपको मजदूर-किसान नहीं मानते, उस शासन में उनका हक भी उतना ही होगा जितना किसी मजदूर-किसान का होगा। यह बात बिल्कुल साफ होनी चाहिए कि वह विशेषाधिकारयुक्त शासन नहीं होगा। उस शासन में बतौर इंसान सबको समान अधिकार मिलेंगे। किसी का धर्म, जाति, रंग, लिंग या विचार कुछ भी हो, उससे फर्क नहीं पड़ेगा। चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक- दोनों को पूरी इंसानी गरिमा के साथ जीवन बिताने का अधिकार होगा। निजी लालच को किसी भी कीमत पर पूरा करने की जो जकड़न आज पूरे इंसानी समाज को अपने चंगुल में किए हुए है, उस जकड़न को तोड़ा जाएगा। किसी को निजी मुनाफे के लिए दूसरों के श्रम का शोषण करने का अधिकार नहीं होगा। इंसानी जीवन की गरिमा के हनन का अधिकार किसी को नहीं दिया जाएगा, दूसरों की जिंदगी अपने कब्जे में लेने की छूट किसी को नहीं मिलेगी। इतना अंकुश जरूर रहेगा, लेकिन उसके बाद स्वतंत्रता और समानता की नई जमीन सबके सामने उपलब्धियों के नए आयाम खोलेगी जिसमें हमारे होने की कसौटी किसी पर कब्जा करना, किसी पर स्वामित्व हासिल करना, किसी को नीचा दिखाना, किसी को पीछे छोड़ना नहीं बल्कि सबके साथ जीवन के नए आनंद लेना, व्यक्तित्व का विकास करते जाना होगा। जाहिर है उसके बाद मनुष्य समाज ही नहीं, पृथ्वी का ये पूरा परिवेश, संपूर्ण जीव जगत ज्यादा चैन, ज्यादा सुकून महसूस करेगा। सबके जीवन में गरिमा आएगी। यही हमारे उस नए शासन की कामयाबी की कसौटी होगी जिस पर हम हर हाल में खरे उतरेंगे।

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