नयी दिल्ली: बंगाल चुनाव के बाद एक बार फिर स्पष्ट हो गया है कि मेहनत करने वालों को उस का फल ज़रूर मिलता है. जिस तरह से बंगाल में ममता को PM मोदी से लेकर अमित शाह और JP नड्डा ने घेरने की कोशिश की और बीजेपी,आरएसएस समेत उस के तमाम सहयोगी संगठन मैदान में उतरे उस से यह साफ़ लग रहा था कि जो अमित शाह जी कह रहे हैं कि "2 मई दीदी गयी" तो यह सच होने वाला है क्यों कि योगी जी भी फरमा रहे थी कि 2 मई को TMC के गुंडे जान की भीक मागेंगे.
आरोप लगे कि सीबीआई और ED भी केंद्र के इशारे पर काम कर रहे हैं और इलेक्शन कमीशन बीजेपी से मिल कर काम कर रहा है. मीडिया बीजेपी की गोद में खेल रहा है. इस तरह के गंभीर आरोपों के बाद भी ममता राज्य में पहले से ज़्यादा मज़बूत हुईं और 2016 के मुक़ाबले उन को 2021 में ज़्यादा सीटें मिलीं. ममता के संघर्ष और उनकी चुनवी रणनीति ने समूचे विपक्ष को एक बड़ा पैग़ाम दिया हैं कि कैसे चुनाव जीते जाते हैं? और रोने के आगे भी जहां और हैं और बीजेपी भी हार सकती है.
कांग्रेस समेत विपक्ष के बड़े बड़े नेता एक ही बात कहते हैं कि मीडिया हमारे साथ नहीं है. आरोप लगते हैं कि न्यायपालिका (Judiciary) के फैसले समझ में नहीं आ रहे हैं. सीबीआई ED और दूसरी सरकारी एजेंसियों को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसे में चुनाव कैसे लड़ा जाये? कांग्रेस के नेताओं का एक बड़ा आरोप यह भी होता है कि पार्टी के पास पैसा नहीं है.
अब सवाल यह उठता है कि यही सब तो ममता दीदी की पार्टी के लोग आरोप लगा रहे थे. उस के बावजूद वह बीते पांच साल से संघर्ष कर रहे थे. 2019 (लोकसभा चुनाव) हारने के बाद उनको यह समझ में आ गया था कि काम 24/7 करना होगा. राजनीती पुराने समय वाली नहीं रही बल्कि अब फुल टाइम राजनीती करनी होगी. हर समय सियासत करनी होगी. तभी विरोधियों को हराया जा सकता है. इसी लिए दीदी ने "दीदी के बोल" और "दीदी आप के द्वार" जैसे प्रोग्राम शुरू किये, ताकि वोटरों से जुड़ा जा सके.
संघर्षों के बीच खुद ममता मैदा में उतरीं. CAA और NRC के विरुद्ध केंद्र पर सख्त हमला बोला. तेवर आक्रामक रखे. मंदिर भी गयीं तो मस्जिद भी जाने का जोखिम लिया. PM मोदी को सीधी टक्कर दी. बीजेपी और मोदी के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाया. बीजेपी कहती रही कि ममता को "जय श्री राम" से परहेज़ है. बीजेपी ममता बनर्जी को "ममता बनों" बनाने में लगी रही उस के बावजूद ममता झुकी नहीं और ममता रुकी नहीं.
ममता ने बीजेपी के हर हमले का जवाब उस से ज़्यादा सख्त लहजे में दिया. ना वह सॉफ्ट हिन्दुत्त्व में फंसीं और न ही हार्ड में बल्कि वह संविधान और "बंगाली मानुस" और "बंगाल की अस्मिता" की बात करती रहीं और उन्हों ने हर मोड़ पर जनता से जुड़ाव रखा.
ममता की जीत से कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष को यह समझना होगा कि जो पार्टियां 60 साल से सत्ता में रहीं उन के पास अगर पैसा नहीं है तो किस के पास होगा? और उसके लिए दोषी कौन है? अगर बीजेपी के पास पैसा है तो कांग्रेस के बड़े बड़े नेता करोड़ों अरबों के मालिक भी हैं, इस को कैसे नकारा जा सकता है? क्यों बीजेपी ने ऐसी पालिसी बनाई कि पार्टी के पास पैसा हो और कांग्रेस ने ऐसी पालिसी बनाई कि नेताओं के पास पैसा हो.
क्यों कांग्रेस के नेता पार्टी के लिए अपनी जेब ढीली नहीं करते हैं? क्या मेन कांग्रेस को युथ कांग्रेस से सबक़ लेने की ज़रुरत नहीं है? कि उस के 1000 लड़के पहले अपनी जेब से पैसा लगाते हैं. सड़क पर उतर कर जनता की सेवा करते हैं, तो आज लोग यूथ कांग्रेस को फंड भी दे रहे हैं और दुनिया भर के भारतीय आज संकट के समय में यूथ कांग्रेस की मदद कर रहे हैं. कांग्रेस को समझना होगा कि गलती कहाँ हो रही है. सिर्फ ऐसा, वैसा, यह नहीं, वह नहीं से काम नहीं चलने वाला है.
अगर पार्टी को यह लगता है कि एक दिन जनता उस के साथ खड़ी हो जाएगी तो यह उसकी बड़ी भूल है. उस के नेताओं को जनता के लिए उपलब्ध होना होगा. उनको समझना होगा कि जब बीजेपी का कोई वजूद नहीं था तो इंद्रा जी और राजीव जी जनता के लिए चौपाल लगाते थे. कुछ सलेक्टेड लोग मीडिया को ब्रीफिंग देते थे. तब विवाद भी नहीं होता था. आज उस के अपने नेता उस को विवादों में ला रहे हैं और वह नेता जिन को पार्टी ने हमेशा मंत्री से लेकर संसद बनाया और उन्हों ने खूब मालायी खाई, वह आज कांग्रेस के बागी हैं.
कांग्रेस को समझना होगा कि नेहरू और गाँधी की विचारधारा क्यों गुम हो गयी? लोगों की निगाहों में क्यों आज गाँधी और नेहरू को विलन बनाया जा रहा है. अगर एक तरह व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी है तो कांग्रेस की व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी क्यों कमज़ोर है?
आखिर बीजेपी और दूसरे दल पूरे पांच साल 24/7 जनता के लिए उपलब्ध होते हैं, क्यों कांग्रेस ऐसा नहीं कर पा रही है?
आज कांग्रेस के अक्सर नेता AICC आते तक नहीं हैं. जनता से मिलते तक नहीं हैं. कांग्रेस को आज नेताओं के PA चला रहे हैं. तो फिर PA कैसे चलाएंगे पार्टी को यह समझ आ जानी चाहिए. पार्टी ने अगर बिहार में पार्टी को हारने वाले नेताओं से जवाब लिया होता तो आज असम जैसे राज्य में यह नौबत नहीं आती. आखिर चूक हो रही है. राहुल गांधी को खुद सामने आना होगा. पार्टी बैक डोर से नही चलायी जा सकती है. आप को एक्शन मूड में अपने नेताओं की जवाबदेही तय करने होगी.
JNU और OXFORD की टोली और वहाँ के पढ़े लोग नीति तो बना सकते हैं, लेकिन पार्टी नहीं चला सकते हैं. यह कांग्रेस को समझना होगा. पार्टी ज़मीन से जुड़े लोग ही चलएंगे. ऐसे लोग जो जनता से मिलते हों. ऐसे लोग नहीं जो पत्रकारों को भी नेतृत्व से न मिलने दें और पत्रकारों को गाली दें. मीडिया में बयान दें और नेतृत्व को बताएं कि हम ने असम में लाखों लोगों को पार्टी से जोड़ दिया है और ज़मीन पर उनके पांव न हों. तो आम जनों से वह खुद क्या मिलेंगे, क्या नेतृत्व को मिलने देंगे?
जो तीन चार साल में अपने विभाग के लोग देश भर में न बना पायें, अगर पार्टी समझती है कि ऐसे लोग पार्टी के लिए कुछ करेंगे तो यह पार्टी की भूल है. GS बन कर लोग पार्टी को दे क्या रहे हैं और पार्टी से ले क्या रहे हैं? पार्टी को इस के बारे में सोचना होगा.
केरल में आप कैसे अपने लोकल नेत्र्तव के सामने बेबस हो जाते हैं? आप अपने बागी नेताओं के सामने सरेंडर कर जाते हैं? क्या वह पार्टी से ऊपर हैं? राहुल गांधी तक की बात आसानी से लोकल लीडरशिप नहीं मानती है. इस के लिए उन पर गुस्सा करना होता है. दो गुट आपस में टिकट बांट लेते हैं और दिल्ली इस पर कुछ भी करने की पोजीशन में नहीं होता है, और बेबस नज़र आता है. दिल्ली में बैठे केरल के नेता लोगों को इस आधार पर पद देते हैं कि कौन उन के लिए काम करेगा? मतलब पार्टी कुछ नहीं है. इस पर आप को विचार करना होगा. अन्यथा हार और फिर एक और हार के लिए आप को तैयार रहना होगा. अगर अभी भी नहीं सीख ली आप ने तो UP में हालात यहां से भी बदतर होने वाले हैं. यह समझना होगा कि जनेऊ कांग्रेस को नहीं बचा पता है और ममता बानों का आरोप झेल कर भी दीदी जीत जाती हैं.
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