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पत्रकार सिद्दीक कप्पन की अवैध गिरफ़्तारी का एक बर्ष

यह लेख खासकर उनके लिए है जो आज़ादी का मतलब सिर्फ एक देश से दूसरे देश की आज़ादी को समझते हैं। एक स्वतंत्र देश में नागरिकों की स्वतंत्रता को शासन सत्ता के हाथों कुचले जा सकने के सत्य के सापेक्ष ही दुनिया में लोकतांत्रिक विचारों के लिए क्रांतियां हुईं और फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता समानता एवं न्याय के वे नारे दिए जिन्होंने आज़ादी की नई इबारत लिखी। राज्य और नागरिक के संबंधों में स्वतंत्रता की परिभाषा को लोकतंत्र ने नया आकार दिया था। भारतीय संविधान की यह गारंटी भी इसी से है कि किसी व्यक्ति को किसी भी आरोप में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना उसके जीवन और स्वतंत्रता से बंचित नहीं किया जाएगा। इसी आज़ादी पर भारत की वर्तमान सरकार के कुठाराघात का यह नायाब किस्सा है।

By: Guest Column
One year of illegal arrest of journalist Siddiq Kappan

पत्रकार सिद्दीक कप्पन की अवैध गिरफ़्तारी का एक बर्ष

 

यह लेख खासकर उनके लिए है जो आज़ादी का मतलब सिर्फ एक देश से दूसरे देश की आज़ादी को समझते हैं। एक स्वतंत्र देश में नागरिकों की स्वतंत्रता को शासन सत्ता के हाथों कुचले जा सकने के सत्य के सापेक्ष ही दुनिया में लोकतांत्रिक विचारों के लिए क्रांतियां हुईं और फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता समानता एवं न्याय के वे नारे दिए जिन्होंने आज़ादी की नई इबारत लिखी। राज्य और नागरिक के संबंधों में स्वतंत्रता की परिभाषा को लोकतंत्र ने नया आकार दिया था। भारतीय संविधान की यह गारंटी भी इसी से है कि किसी व्यक्ति को किसी भी आरोप में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना उसके जीवन और स्वतंत्रता से बंचित नहीं किया जाएगा। इसी आज़ादी पर भारत की वर्तमान सरकार के कुठाराघात का यह नायाब किस्सा है।

 

 

दिनांक 5 अक्टूबर 2020 यानि आज से ठीक एक साल पहले पत्रकार सिद्दीक कप्पन को ड्राइवर आलम और सीएफआई कार्यकर्ता अतीकुर्रहमान एवं मसूद अहमद के साथ यूपी पुलिस ने दिल्ली से हाथरस जाते हुए शांति भंग की आशंका में यमुना एक्सप्रेस-वे के मथुरा में मांट कट पर धारा 151 दप्रस के तहत गिरफ्तार किया गया था। उन्हें 6 अक्टूबर 2020 को एसडीएम मांट मथुरा ने धारा 107/ 116 दप्रस की जांच का नोटिस दिया और धारा 116(3) दप्रस के किसी आदेश के बिना जेल भेज दिया। धारा 116(3) दप्रस का आदेश उस मामले में 19.10.20 को पारित किया गया। वे 06.10.20 से 19.10.20 तक की अवैध अभिरक्षा में थे कि दिनांक 07.10.20 को थाना मांट पुलिस ने यूएपीए की धारा 17/18 के साथ राजद्रोह की धारा 124-ए भादस के तहत उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करके सीजेएम कोर्ट मथुरा से उनकी हिरासत का रिमांड ऑर्डर ले लिया। एनआईए एक्ट में यूएपीए सूचीबद्ध होने के कारण या तो 'स्पेशल कोर्ट' या सेसन जज ही उनकी अभिरक्षा दे सकते थे। मजिस्ट्रेट कोर्ट को कोई अधिकार इस बाबत नहीं था। सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था विक्रमजीत सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (2020) को ठुकराते हुए सीजेएम मथुरा 22.12.20 तक उनकी अभिरक्षा के रिमांड आर्डर जारी करती रही। अचानक एसटीएफ के आवेदन पर इसी विधि व्यवस्था के हवाले से जिला एवं सत्र न्यायालय मथुरा ने दिनांक 22.12.20 को सीजेएम न्यायालय से रिमांड फाइल एएसजे प्रथम मथुरा को स्थानांतरित कर दी।

 

 

एनआईए एक्ट के तहत स्पेशल कोर्ट न होने पर सेशन जज ही उन शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं न कि एएसजे। एएसजे सेशन जज की शक्तियों का प्रयोग केबल उन मामलों में कर सकते हैं जो या तो मजिस्ट्रेट से सेशन को कमिट हुए हों या सैशन में दायर हुए हों और तब सेशन जज ने उन्हें सुनवाई के लिए किसी एएसजे के सुपुर्द किया हो। इस संबंध में एम आर मल्होत्रा केस AIR 1958 All 492 को समझना होगा। ये केस न तो सेशन को कमिट किया गया था न ही सेशन में दायर था। ऐसी हालत में एएसजे कोर्ट को इसकी सुनवाई के अधिकार नहीं थे। एएसजे कोर्ट ने बिना अधिकार उन्हें जेल भेज दिया।

 

 

यही नहीं, 90 दिन में तफ्तीश पूरी न होने पर और 90 दिन एसटीएफ को दे दिए जो सिवाय स्पेशल कोर्ट के कोई दे नहीं सकता था। वे बिना अधिकार 03 अप्रेल 2021 तक उनकी गिरफ़्तारी बढ़ाते रहे। आखिर 03 अप्रेल 21 को एसटीएफ ने चार्जशीट पेश की। यह चार्ज शीट बिना अनुज्ञा दाखिल की गई। कानून कहता है कि दफा 153-ए, 295-ए, 124-ए आईपीसी के अपराध का संज्ञान बिना धारा 196 दप्रस की अनुज्ञा के नहीं किया जा सकता। धारा 17 व 18 यूएपीए का संज्ञान धारा 45 यूएपीए की अनुज्ञा के बिना नहीं किया जा सकता। फिर भी एसजे प्रथम मथुरा ने आरोप पत्र पर संज्ञान 03.04.21 को ले लिया और धारा 309 दप्रस के तहत उनकी अभिरक्षा अधिकृत कर दी जो अभी भी जारी है। धारा 196 दप्रस की अनुज्ञा संज्ञान 03,.04.21 के बाद 12.04.21 को दी गयी और जून 2021 में संशोधन करके उसमें धारा 45 यूएपीए बढ़ाया। कोर्ट ने संज्ञान के आदेश में किसी अनुज्ञा का कोई उल्लेख नहीं किया है बल्कि पश्चातवर्ती अनुज्ञाओं को सिर्फ रिकार्ड पर रखा है।

 

 

उल्लेखनीय है कि शांतिभंग की आशंका के जिस केस में 5 अक्टूबर 20 को उन लोगों को हिरासत में लिया गया था वह 15 जून 21 को ड्राप हुआ क्योंकि विहित अवधि में सरकार ऐसी आशंका के अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर पाई थी। इस केस में भी धारा 116 (6) दप्रस के विपरीत उन्हें 5 अप्रेल 21 से 15 जून 21 तक शांति भंग के केस में उन्हें बेजा हिरासत में रखा गया। यही नहीं, मांट थाने से यूएपीए के केस के बाद थाना चंदपा हाथरस से 124-ए आईपीसी के केस नम्बर 151/20 में यूएपीए बढ़ाकर इन लोगों को उसमें भी 19 अक्टूबर 20 को हिरासत में ले लिया गया जबकि वे कभी हाथरस गए ही नहीं थे और न ही उनका कोई लिंक एफआईआर के कथनों से था।

 

 

एक साथ एक स्टेट में दो यूएपीए तथ्यों के एक ही सेट पर दिसंबर 20 तक चलाई जाती रही और उनकी हिरासत उस केस में अधिकृत की जाती रही। वहां भी बिना अधिकार यूएपीए के रिमांड मजिस्ट्रेट अधिकृत किये जा रहे थे। जमानत के स्तर पर आपत्ति के निस्तारण से पूर्व ही सरकार ने मांट मथुरा के केस 199/20 से चंदपा का केस 151/20 एमलगेट कर दिया और चंदपा के केस से उनको रिहा कर दिया। दो भिन्न जिलों की दो भिन्न एफआईआर के एमलगेशन का यह यूनिक मामला था। इस तरह हम देखते हैं कि 05.10.20 से आज 05.10.21 तक इस केस में पत्रकार सिद्दीक कप्पन और उसके ड्राइवर आलम, सहयात्री मसूद अहमद और अतीकुर्रहमान लगातार अवैध हिरासत में मथुरा जेल में हैं।

 

 

सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस केस के आरोपी आलम, मसूद और अतीकुर्रहमान की ओर से 05.11.2020 को माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद में अपनी अवैध गिरफ़्तारी से रिहाई के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका योजित की गई थी। उस याचिका में 27.10.21 को सुनवाई होनी है। दुनिया में किसी भी न्यायपालिका में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की सुनवाई लगभग एक साल टलती रही हो , ऐसा शायद ही कोई उदाहरण हो।

 

 

सभी आरोपी भारतीय नागरिक हैं। संविधान भारत में विधि के शासन की गारंटी है। यह गारंटी विदेशी नागरिकों तक के लिए है कि विधि के समक्ष समानता रखी जायेगी। हम व्यक्तियों का चुनाव करते हैं कि वे संविधान के दायरे में शासन करेंगे। हम निर्वाचित सरकारों को निरंकुश शासन के लिए नहीं चुनते। इस केस में भारत की केंद्र और राज्य सरकारें विधि के शासन के प्रति प्रतिबद्धता दर्शित नहीं कर सकी हैं। उनका राजनैतिक एजेंडा कानून के प्रति सम्मान पर भारी पड़ा है। न्यायपालिका भी समय पर अपने कर्तव्य के निर्वाहन में सफल नहीं रही है। विलम्बित न्याय न्याय से विचलन है, यह सुस्थापित सिद्धांत है। 

 

 

इस केस की स्टडी से आसानी से इस सवाल का जबाब मिल जाता है कि कई विश्वविद्यालयों के छात्र 'हम ले के रहेंगे आज़ादी' के नारे आज़ाद हिंदुस्तान में क्यों लगा रहे थे और उन्हें क्यों सरकारें एंटी नेशनल बता रही थी। एक वकील के नाते मुझे लगता है कि मैं ये भी कहूँ कि नागरिकों की आज़ादी के बिना देश की आज़ादी का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

 

यह केस मानवाधिकारों के हनन के लिए भी एक उदाहरण है। इस केस में अतीकुर्रहमान बचपन से ही एरोटिक रिगरजिटिशन नाम की बीमारी से पीड़ित है। गिरफ्तारी से पूर्व वह एम्स के जेरे इलाज था और बीमारी की स्टेज सीवियर थी। जेल में बार बार बीमार होने के बाबजूद उसे इलाज के लिए एम्स नहीं ले जाया गया। इलाज का अधिकार इस बात से प्रभावित नही होता कि कोई व्यक्ति आरोपी है या सजायाफ्ता। अतीकुर्रहमान पर तो अभी न्यायालय ने आरोप भी विरचित नहीं किये हैं। उसका जीवन दांव पर है और सरकारें उससे खिलवाड़ कर रही हैं। हिरासत में उसकी मृत्यु अगर होती है तो यह इरादतन हत्या के लिए बरती गई उपेक्षा होगी। कोई सभ्य समाज अपने नागरिकों के प्रति सरकार के ऐसे रवैये को अनदेखा कैसे कर सकता है।

 

 

सभ्य होने का तकादा तो घोषित शत्रु राष्ट्र के सैनिक को भी हिरासत में बेहतर इलाज का है जबकि यहां अतीकुर्रहमान भारतीय नागरिक है और नागरिक कर्तव्यों के चलते सरकारों से असहमत होने या विरोध व्यक्त करने का उसका अधिकार है। पूरे अन्वेषण में सरकार इस संबंध में कोई साक्ष्य एकत्र नहीं कर सकी है कि इन लोगों ने भारत सरकार के संवैधानिक ढांचे को कोई चुनौती दी हो या उसे क्षति पहुंचाई हो। जहां तक उनपर मुस्लिम परस्ती का इल्जाम है, उसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। किसी जातीय या धार्मिक समूह के प्रति अन्याय या अत्याचार की बात कहना समुदायों के बीच द्वेष की कोटि को तब तक नहीं पहुंचता जब तक कि भिन्न समुदाय के प्रति अन्याय या अत्याचार का उसमें उकसावा न हो या उनके प्रति द्वेष को बढ़ाने वाली बात न हो। महिलाओं, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों के प्रति उपेक्षा या अत्याचार की बातें अगर न की गई होतीं तो लोकतांत्रिक भारत में उन्हें कानूनी संरक्षण कभी सामने आते ही नहीं। शायद अब सरकारें जातीय उत्पीड़न की घटनाओं पर बोलने को भी द्वेष विस्तार की श्रेणी में रखना चाहेंगी। यह सब डरावना परिदृश्य है। लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए स्वतंत्र और सक्रिय न्यायपालिका की जरूरत और शिद्दत से महसूस करता हूँ।

 

मधुवन दत्त चतुर्वेदी एडवोकेट

 

व्याख्या: यह लेखक के निजी विचार हैं। लेख प्रकाशित हो चुकी है। कोई बदलाव नहीं किया गया है। वतन समाचार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। वतन समाचार सत्य या किसी भी प्रकार की किसी भी जानकारी के लिए जिम्मेदार नहीं है और न ही वतन समाचार किसी भी तरह से इसकी पुष्टि करता है।

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