आर्थिक दृष्टिकोण से विभिन्न संस्थानों का बंद होना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बुरी ख़बर है. सरकारी शिक्षण संस्थानों के साथ निजी संस्थान भी अप्रैल से ही बंद है. सरकारी शिक्षण संस्थानों में नौकरी करने वाले शिक्षक व कर्मचारी के लिए घर में बैठकर सरकारी अनुदान मिलना जरूर सुखद है लेकिन निजी स्कूल और कॉलेज में नौकरी करने वाले शिक्षक और लेक्चरर के लिए बिना किसी अनुदान के घर बैठकर जीवन व्यतीत करना मुश्किल हो गया है.
यह देश का दुर्भाग्य है की भागदौड़ कर भ्रष्ट सिस्टम का हिस्सा बनकर सिर्फ डिग्री की बुनियाद पर भले ही वो योग्य ना हो लेकिन सरकारी कुर्सी का लुत्फ़ उठा रहे है. दूसरी तरफ डिग्री के साथ योग्य होने के बावजूद प्राइवेट ( निजी ) शिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षक और लेक्चरर आज की तारीख में घर में बैठे हुवे है, जिसके लिए जीवन यापन करना मुश्किल हो गया है.
क्योंकि देश में कोरोना का हाहाकार मचा हुआ है जो कहीं न कहीं सरकार ने भी सच्चाई कम और हाहाकार मचाने में बराबर का योगदान दिया है.
इस हाहाकार में सबसे ज्यादा नुकसान निजी संस्थाओं में कार्यरत लोगों को हुआ है. निजी स्कूल और कॉलेज की ओर से शिक्षक और लेक्चरर छूट्टी पर है. जिसे किसी अनुदान का कोई भरोसा नहीं है. देश के विभिन्न हिस्सों से शिक्षकों का ख़ुदकुशी की ख़बर दिल को दहला देने वाली है. आर्थिक तंगी से परेशान होकर ज्ञान का प्रचार व प्रसार करने वालों द्वारा इस तरह की घटना का अंजाम देना दिल को झकझोर कर रख देता है जो समाज व मुल्क के लिए बहुत ही चिंता का विषय है.
निजी शिक्षण संस्थानों के साथ विभिन्न निजी कंपनी ,उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंटिंग मीडिया समूह भी है जो एक एक कर बंद होते जा रहे है. और इस संस्थानों में नौकरी करने वाले लोगों का एक झटके में नौकरी चले जाने से आर्थिक दृष्टिकोण से कई मुश्किलें खड़ी हो गई. खुदकुशी करने वालो में बॉलीवुड सितारों से लेकर पत्रकार भी है जो अख़बार और टीवी चैनलो के सुर्ख़ियों में है लेकिन आर्थिक तंगी से परेशान होकर खुदकुशी करने वालो में देशभर में आम जनता की तादाद भारी संख्या में है जो मुश्किल से सुर्ख़ियों में आ पाता है.
अभी हाल ही में देश के बड़े मीडिया समूह के एक दैनिक अख़बार का पूर्णत बंद होने से सैकड़ो पत्रकारों की नौकरी चली गयी है. सवाल है की उन तमाम पत्रकारों का घर कैसे चलेगा है? एक झटके में नौकरी से बेदखल हो जाने का बोझ को ढोना कितना मुश्किल होता होगा वो दिल ही जानता होगा जिसकी नौकरी इस कोरोना महामारी की लॉकडाउन में चली गयी है. कई प्रिंटिंग प्रेस का ऑफिस तो लॉकडाउन के शुरुआत से ही बंद पड़ा है. प्रेस में काम करने वाले बेरोजगार है. कई लेखक अपनी किताबों को लिख चुके है लेकिन प्रिंटिंग प्रेस के बंद हो जाने से काफी काम रुका हुआ है. इस तरह निजी संस्थानों में काम करने वाले पत्रकार हो या शिक्षक व लेक्चरर सभी आर्थिक दृष्टिकोण से मुश्किल दौर से गुजर रहा है.
अब कुछ उद्योगों के खुलने से मजदूर वर्गो को थोड़ी राहत है . लेकिन निजी शिक्षण संस्थानों के बंद होने से बेरोजगार शिक्षक व लेक्चरर क्या करेंगे इस पर सरकार को कोई परवाह नही है. बेरोजगार शिक्षक व लेक्चरर को लेकर क्या नीति बननी चाहिए उस पर सरकार व विपक्ष सभी मौन धारण किये हुवे है. विपक्ष में मौजूद राजनीतिक पार्टी को चाहिए की इस मुद्दे को उठाये और सरकार की जिम्मेदारी बनती है की असरदार कदम उठाये. सरकार को चाहिए की लॉकडाउन में हुवे बेरोजगार शिक्षक व लेक्चरर को लेकर नीति बनाये और कमिटी का गठन कर विभिन्न निजी शिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षक व लेक्चरर के नाम अनुदान का भुगतान करें जब तक लॉक डाउन की वजह से शिक्षण संस्थान बंद पड़ा है. ऐसा होने से जिन आर्थिक परिस्थितियों से कॉलेज व स्कूल गुजर रहे है उससे थोड़ा राहत मिलेगा और छात्रों के अभिभावक पर भी सकारात्मक असर होगा.
लॉकडाउन का सबसे ज्यादा प्रभाव मध्यम व निम्न वर्ग के आम जनता पर पड़ा है.
लॉकडडाउन के चलते भारत की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगने का अनुमान है. वित्त वर्ष 2021 के लिए भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट शून्य रह सकता है. मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट में ये बात कही है. रेटिंग एजेंसी ने कहा कि भारत को लॉकडाउन के चलते बड़ी गिरावट झेलनी पड़ेगी.
रेटिंग एजेंसी ने संकेत दिया कि फिलहाल रेटिंग में अपग्रेड की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है. कोरोना वायरस संकट के कारण देशभर में लॉकडाउन से देश में आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह ठप हैं. इससे कंपनियों पर कर्ज का बोझ बढ़ गया है. जिसकी वजह से जीडीपी की ग्रोथ कमजोर हुई है. मूडीज ने कहा कि नेगेटिव आउटलुक से साफ है कि आर्थिक गतिविधियां काफी कमजोर हो चुकी हैं.
सवाल है की आर्थिक तंगी से परेशान आम जनता की सूद कौन लेगा ? क्या सरकार द्वारा चंद मुट्ठी भर अनाज दे देने से बिना रोजगार के जिंदगी गुजारना संभव है ?
एक तरफ निजी संस्थानों के शिक्षाविद व पत्रकार आर्थिक संकट में है तो दूसरी तरफ सरकार धार्मिक गतिविधियों में व्यस्त है. देश की एक बड़ी आबादी भी शिक्षा व रोजगार पर सरकार से सवाल करने के बजाय चुप्पी साधे हुए धार्मिक रंग में रंग गये है.
मौजूदा केंद्र सरकार को धार्मिक गतिविधियों में सम्मिलित होने के बजाय भारत की अर्थव्यवस्था पर ध्यान दे तो भारत को मंदी के संकट से निकलने में बड़ी मदद मिलेगी.
लेख़क अफ्फान नोमानी रिसर्च स्कॉलर, लेक्चरर व स्तम्भकार है, साथ ही शाहीन एजुकेशनल एंड रिसर्च फाउंडेशन से जुड़े है.
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