जब से लिखने पढ़ने का रिवाज हुआ तब से लेकर के आज तक कोई भी ऐसी किताब ना आई होगी और ना आएगी जिससे पूरी तरह सहमत या पूरी तरह असहमत हुआ जा सके। जिस तरह हर दौर और हर युग में किताबें लिखने का चलन रहा है और किताबें लिखी जाती रहेंगी, उसी तरह उन की बहुत सारी चीजों से लोगों ने सहमति और असहमति दोनों व्यक्त की और करते रहेंगे, लेकिन किताब लिखने की नीति और नियत सबसे अहम होती है। इतिहास में बहुत सी किताबें ऐसी लिखी गई जिससे समाज में लड़ाई झगड़ा नफरत और लोगों के तईं दुष्ट प्रचार करने का काम किया गया। लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी लिखी गई जिससे इंसानों को इंसानों से जोड़ने उनके तईं सच्ची श्रद्धा रखने और उनकी कमियों को दरकिनार करते हुए उनकी खूबियों पर चर्चा करने पर बल दिया गया।
इसी कड़ी में बीते दिनों एक किताब प्रकाशित हुयी जिसका शीर्षक "मसअलये तकफीर व मुताकल्लेमीन" इस किताब के नाम को सरल शब्दों में हम यूं भी कह सकते हैं कि एक व्यक्ति इस्लाम में कब रहेगा और किन शर्तों का पालन न करने की वजह से वह इस्लाम के बाहर हो जाएगा- इस किताब में इस पर चर्चा हुई है। अहम बात यह है कि किताब के लेखक डॉक्टर जीशान अहमद मिस्बाही ने इस किताब को जिस नीति और नियत के साथ लिखा है वह सबसे ज्यादा सराहनीय और प्रशंसनीय होने के साथ महत्वपूर्ण भी है।
इस किताब को पढ़ने के बाद कम से कम पाठक (रीडर) के सामने यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि किताब को लिखने का मकसद सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों में आपस में एक दूसरे के झगड़ा और एक मसलक के लोगों को दूसरे मसलक के बीच नफरत का ज़हर बोने का जो चलन हो चुका है, यह किताब उन बिंदुओं पर बात करती है। यह किताब यह बताती है कि जब इंसान और मुसलमान आपस में एक दुसरे के भाई होने की बात कहते हैं और मुसलमान यह नारा देते हैं कि "एक हो मुस्लिम हरम की पासबानी के लिए" और सभी मसलक के लोग इस बात का नारा जोरों पर बुलंद करते हैं तो फिर एक दूसरे मसलक के लोगों को इस्लाम से निकालने और अपने आप को सिर्फ इस्लाम का ठेकेदार कहने का जो चलन है वह कहां तक सही है।
इस किताब के लेखक डॉक्टर जीशान अहमद मिस्बाही ने जिस सरल सच्चे और सभ्सय अंदाज में इन बिंदुओं पर चर्चा की है वह सराहनीय है। वहाबी तहरीक से लेकर बरेलवी और देवबंदी तहरीक या वो तमाम लोग जो खुद को इस्लाम का ठेकेदार समझते हैं क्या वह सच में इस्लाम के ठेकेदार हैं या इस्लाम में उनके कर कमलों से घृणा और नफरत फ़ैल रही है, उन्हें यह सोचना होगा। इस किताब के लेखक डॉ जीशान अहमद मिस्बाही ने लोगों को यह बताने की कोशिश की है कि किन शर्तों का पालन ना करने की वजह से एक व्यक्ति इस्लाम में रहता है या इस्लाम से निकल जाता है। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जिस सरल अंदाज में बातचीत की है और जिस तरह से ईश्वर के अंतिम पैगंबर मोहम्मद साहब के सभ्य सरल और शालीन जीवन पर चर्चा करते हुए यह बताने की कोशिश की है कि मोहम्मद साहब लोगों को लोगों से जोड़ने आए थे, लेकिन अफसोस यह है कि आज मोहम्मद साहब के अनुयायी होने का दावा करने वाले जो लोग मोहम्मद साहब का कलमा पढ़ते हैं उनको ही आपस में एक दूसरे से अलग करने में लगे हुए हैं।
उन्होंने लोगों को उनके कर्तव्यों का निष्ठा पूर्वक निर्वहन करने पर जोर देते हुए इस बात पर बल दिया है कि किस तरह से लोगों को चाहिए कि वह अपने कर्तव्यों का इस तरह पालन करें कि समाज में फसाद और अराजकता के बजाए मानवता और मानव जाति की रक्षा हो सके और मानवता के उसूलों का लोग ऐसे पालन करें जिस तरह प्रोफेट मोहम्मद ईश्वर के अंतिम नबी संदेशा लेकर आये थे।
मोहम्मद साहब का यह कथन था कि ईश्वर ने हमें लोगों के लिए रहमत बनाकर भेजा है ना कि उनके लिए घृणा और नफरत का प्रचारक बना कर। यही वजह है कि देखते ही देखते पूरा संसार या तो उनका हो गया या कम से कम लोगों ने उनको सच्चा जाना और उनकी पास अपनी अमानत लेकर जाने लगे। मोहम्मद साहब के ना मानने वाले वह यूरोप और अमेरिका से लेकर भारत के महात्मा तक तमाम लोगों ने उनके तईं सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखी और उनके मानवता के मूल्यों का निर्वहन करने और उसे आगे बढ़ाने पर बल दिया।
इस किताब में लेखक की कुछ चीजों से निसंदेह असहमति व्तयक्लात की जा सकती और की जानी चाहिए, क्योंकि ईश्वर के अलावा संसार में कोई भी शक्ति कुल नहीं है। जब ईश्वर हर रोज नई आन नई बान और नयी शान के साथ प्रकट होता है तो ईश्वर के अनुयाई भी वक्त वक्त के साथ उनकी राय और उनके विचारों में निखार का आना जरूरी है, लेकिन निसंदेह इस किताब को हर उस इंसान को पढ़ना चाहिए जो समाज में न सिर्फ प्यार और मोहब्बत के प्रचार के लिए वचनबद्ध है बल्कि जो लोग मसलक की जंग और मुसलमानों के बीच में दूरियों को पाटकर प्यार और प्रेम की अमर गाथा लिखना चाहते हैं उन्हें भी इस किताब को पढ़ना चाहिए ताकि जो लोग बात बात में एक दूसरे को इस्लाम से निकालने की कोशिश करते हैं वह निकालने के बजाय लोगों को इस्लाम और इस्लामिक मूल्यों से जोड़ने की कोशिश करें।
जिससे संसार में शांति और प्यार कि गाथा अमर रहे। आशा है कि उर्दू में लिखी डॉक्टर जीशान मिस्बाही की उपरोक्त किताब लोगों को पसंद आएगी और लोग इसे हाथों हाथ लेंगे और खुले मन और खुले दिमाग से इस पर विचार करेंगे क्यों कि लेखक ने जिस अंदाज से द्वेष और दुई के भाव को मिटाकर मसलकी जंग से ऊपर उठकर एक ऐसी लकीर खींचने की कोशिश की है जिस पर एकेश्वरवाद में विश्वास रखने वाले और पैगंबर मोहम्मद साहब में सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने वाले अपने कर्तव्यों का इसलिए ईमानदारी से निर्वहन करें क्योंकि उन्हें प्रलय के दिन ईश्वर के सामने मुंह दिखाना है और यह बताना है कि उन्होंने संसार में लोगों को जोड़ने पर बल दिया ना कि उनके बीच झगड़ा और नफरत फैलाने का काम किया।
अंत में यह कहना उचित होगा कि अगर लेखक ने सहजता और सरलता से शब्दों के चयन पर और बल दिया होता साथ ही सूफी पहलुओं पर किताब के लिखने के दौरान ज़ोर दिया होता तो यह किताब और भी महत्वपूर्ण हो सकती थी. मेरी शुभकामनाएं लेखक के साथ हैं. हमें आशा ही नहीं पूर्ण विशवास है कि आने वाले दिनों में वह इन बिंदुओं को और सहजता और सरलता से अपनी लेखनी में लाने का भरसक प्रयास करेंगे और सूफियाना पहलुओं (विन्दुओं) पर बल देंगे. इस अज़ीम काम के लिए फ़ाज़िल और अज़ीम दोस्त डॉ ज़ीशान को एक बार और बधाई. अल्लाह उनके इस अज़ीम काम को क़बूलियत से नवाज़े और इस का उनको बेहतरीन बदला दे आमीन.
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