वैदिक जी का नहीं, एक युग का अंत हो गया है!
फ़िरोज़ बख़्त अहमद
जब अपने परम मित्र वेद प्रताप वेदिक के अत्यंत दुखद अंत का समाचार सुना तो सांस रुक सा गया कि वेदजी जैसा व्यक्ति क्या कभी हमारे बीच से जा सकता है। उनका देह छोडना मेरे लिए एक बहुत ज़ाती नुकसान है। मानवीय मूल्यों के लेकर वे मेरे बरोमीटर भी थे। पिछले पाँच दशकों से लेखक उनके आर्य समाज, लेखन,पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों के आंदोलनों से जुड़े रहने से किसी रूप में लेखक उनसे कुछ न कुछ सीखता रहा। वे मेरे लिए हमेशा एक मुख्लिस दोस्त और मार्ग दर्शक की तरह से जुड़े रहे।
वे वास्तव में इतने ही जीवंत थे कि कोई ख्वाब-ओ-ख्याल में भी नहीं सोच सकता था कि वे हमारे बीच से ऐसे उठ जाएंगे। मौत तो ह एक को आनि है, जैसा कुरान की एक आयात में लिखा है, “कुल्लू नफ़्सिन ज़ायकतुल मौत,” अर्थात, हर जीवित मनुष्य को मौत का मज़ा चखना है। वैसे, वेदिकजी जिस प्रकार की छाप छोड़ गए हैं, उससे शारीरिक रूप से भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनके दिलचस्प किस्से सदा ही हमारे दिल-ओ-दिमाग और रूह में ख़ुशबुएं बिखेरते रहेंगे। हर समय मुस्कराते रहना, हंसी-ठिठोली करना, चुटकियां भर्ना, शगूफ़े छोडना और अपने पास बैठे व्यक्ति को कभी भी बोर न होने देना, आज के दौर में वेदिकजी की कुछ ऐसी खूबियां थीं, जो आज के मारा-मारी और भाग-दौड़ के जमाने में विरले ही किसी में होंगी।
खुशमिज़ाजी उनके कूट-कूट में भरी हुई थी। एक बार मैं ने उनसे पूछा, “ वेदिकजी, माशाअल्लाह, आपकी फिटनेस का क्या राज़ है; आप क्या खाते हैं?” तुरंत बोले, “ मैं पानी पेटा हूँ और हवा खाता हूँ!” लेखक ने कहा कि आप तो मज़ाक कर रहे हैं, सही बताईए, तो बोले, “फ़िरोज भाई, मैं सुबह उठकर एक कटोरे पानी में नीबू निचोड़कर पीटा हूँ और दो-तीन केले खाता हूँ। उनका बेबाक अंदाज़-ए-बयान ऐसा था कि सामने वाले को हिप्नोटाईज़ कर देते थे। उनकी काबलियत की कोई अथाह नहीं थी। मेरे साथ कई विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर बोले और विशेष रूप से पुणे के एम आई टी (महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी) के मंचों से कुलपति प्रोo विश्वनाथ कराड़ के साथ अनेकों बार उनके सान्निध्य का अवसर मिला और बेतहाशा सीखने को मिला। हिन्दी दैनिक “नवभारत टाइम्स” और “प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया” से भी जुड़े रहे. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी की थी और आज के आरएसएस के वरिष्ठतम विचारकों में से एक थे।
जीवन में यदि ऊंच-नीच नहीं हो तो नीरस हो जाता है। वेदिकजी के जीवन में भी बहुत आए। जब वे पाकिस्तान में हाफिज़ सईद से मिलने गए और उसे नेकी और शांति का सबक दिया तो भारत की कई खबर रिसां एजेंसियों ने उनके बारे में न जाने क्या-क्या ज़हर उगल दिया और देशद्रोही तक का आरोप लगा दिया जिससे वे काफी व्यथित व विचलित हो गए थे। हालांकि उनके चेहरे पर ज़रा सी शिकन तक देखने को नहीं मिलती थी मगर प्रायः देश की स्थिति को लेकर सरकार से अक्सर शिकायत करते कि हिन्दी भाषा को वह स्थान नहीं दिया जो इसे मिलना चाहिए था। उनकी आजीवन यही इच्छा रही कि भारत में शिक्षा हिन्दी माध्यम से ही हो।
हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों में मिठास को लेकर सदा से ही वे बड़े तत्पर रहते और एक शेर, “कोई मुश्किल नहीं है हिन्दू या मुसलमान होना/ हां बड़ी बात है इस दौर में इंसान होना,” अक्सर गुनगुनाते रहते। उन्होंने संघ और मुस्लिमों में पल बनाने के कई प्रयास किए, जिनमें वे कामयाब भी रहे। संघ के वह एक बहादुर सिपाही थे और आए दिन संघ के राष्ट्र नायकों, हेडगेवारजी, गोलवारकरजी, श्यामा प्रसाद मुखर्जीजी, दीन दयाल उपाध्यायजी, अटल बिहारी वाजपेयीजी, बलराज माधोकजी, केदार नाथ सहनीजी आदि के जीवन के वृतांत सुनकर ज्ञान वृद्धि करते। वेदिकजी तो हमारे बीच ही हैं, बस चोला बदला है! वे अमर हैं!
(लेखक पूर्व कुलाधिपति, मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्विद्यालय, हैदराबाद, वरिष्ठ स्तंभकार और भारत रत्न मौलाना आज़ाद के वंशज हैं)
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