मुसलमानों के विरुद्ध घृणा एवं द्वेष फैलाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मजबूरी है। इसके अनेक कारण हैं। एक तो यह कि उन्होंने अपने भक्तों के अन्दर मुसलमानों के विरुद्ध इतना अधिक विष भर दिया है कि अगर यह मुस्लिम समाज की हमदर्दी में एक शब्द भी बोल दें, तब भी उनके मतदाताओं को बुरा लगता है। दूसरा, भाजपा को यह पता चल गया है कि कुछ स्वार्थी मुसलमानों को मीडिया में दिखावे के लिए तो ख़रीदा जा सकता है, परन्तु लाख कोशिश के बावजूद आम मुसलमान भाजपा को माफ़ नहीं करेंगे तथा उसके झांसे में नहीं आएंगे। मुस्लिम समाज आंखें मूंदकर भेड़-बकरियों की भांति अपने लीडरों का अनुकरण नहीं करते। वे जिस किसी को देखते हैं कि उसने कमल थाम लिया है, तो उससे पीठ फेर लेते हैं। इसका तीसरा और अन्तिम कारण यह है जो अकर्मण्य सरकार अपनी सारी योजनाओं मंे औंधे मुंह गिर जाए, उसके लिए राष्ट्रवाद की आग भड़काकर उसपर अपनी रोटियां सेंकने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं रहता। राष्ट्रवाद की यह आग चूंकि कश्मीर और पाकिस्तान के विरुद्ध भड़कायी जा रही है, इसलिए उसकी आंच मुसलमानों पर भी आ जाती है।
दलितों का मामला इससे अलग है। उनको बहला-फुसलाकर साथ किया जा सकता है, इसलिए दलितों की ख़ातिर मगरमछ के आंसू बहाना भाजपा की ज़रूरत है। यही कारण है कि नजीब अहमद की गुमशुदगी को अनदेखा करने वाले नरेन्द्र मोदी को रोहित वेमुला से सहानुभूति जतानी पड़ती है। मुहम्मद अख़्लाक़ और पहलू ख़ान की वारदातों पर ‘मौनी बाबा’ बना रहनेवाला प्रधानमंत्री उना में दलितों को गाय के नाम पर प्रताड़ित किये जाने पर बेचैन हो जाता है और उसका ‘दलित प्रेम’ छलकने लगता है। मोदी जी हज़ारों मील दूर गुजरात जाकर घोषणा करते हैं कि ”मारना ही है तो मुझे गोली मार दो, मगर मेरे दलित भाइयों को न मारो!“ अफ़सोस कि भारतीय लोकतंत्र में यह हास्यास्पद बयान भी जनसाधारण को मूर्ख बनाने के लिए काफ़ी हो जाता है। इसलिए कि कोई गोरक्षक भला प्रधानमंत्री जी को मारने का विचार भी अपने दिल में नहीं ला सकता। इस पाखण्ड के बजाय मोदी जी को कहना चाहिए था कि ‘मैं उना में यह जघन्य अपराध करनेवालों को कठोर दण्ड दूंगा!’ लेकिन मोदी जी अपने ही लोगों को दण्ड देने का जोखिम भला कैसे उठा सकते हैं?
प्रधानमंत्री जी का यह बयान गुजरात चुनावों से पहले का था। उसके बाद दलितों ने भाजपा को सबक़ सिखाया और उसे 116 से 99 तक घटा दिया। गुजरात के अन्दर दलितों के प्रभावशाली नेता जिग्नेश मेवाणी ने चुनाव में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके बावजूद ज़मीनी सच्चाई नहीं बदली। मोदी जी के पैतृक ज़िला महसाणा में एक दलित युवक को अपनी बारात में घोड़ी पर बैठकर जाने की खुलेआम सज़ा दी गयी। उसके पूरे समाज का बहिष्कार कर दिया गया। गांव के सरपंच ने अन्य नेताओं के साथ मन्दिर से आदेश लागू किया कि उनके साथ किसी प्रकार का मेल-जोल न रखा जाए, किसी भी दलित को खाना-पानी न दिया जाए, किसी भी दलित को गाड़ियों पर बैठने की अनुमति न हो, कोई गांव वाला अगर दलितों की मदद करे तो उससे पांच हज़ार जुर्माना वुसूल करने के बाद उसको भी गांव से निकाल दिया जाएगा। इस उद्घोषणा के बाद दुकानदारों ने दलितों के हाथ दूध या अन्य घरेलू चीज़ें तक बेचने से मना कर दिया। इस मामले में गांव के सरपंच वेणुजी ठाकुर की गिरफ़्तारी के अलावा चार अन्य के विरुद्ध भी एस.सी.एस.टी. ऐक्ट की धाराओं के अन्तर्गत मुक़द्दमा दर्ज किया गया, परन्तु आम तौर पर दबाव बढ़ाकर ऐसे मुक़द्दमे समाप्त करा दिये जाते हैं। संघ परिवार हिन्दू समाज से जाति-पाति का भेद मिटाने का दावेदार है। वर्षों से उसे गुजरात मंे सत्ता प्राप्त है। अब तो केन्द्र की सत्ता भी उसी के पास है, इसके बावजूद उपर्युक्त दुखद घटना का घटित होना क्या उसकी असफलता नहीं है? या यह दावा भी मात्र पाखण्ड है?
दलितों पर अत्याचार भाजपा की सत्ता तक सीमित नहीं हैं। राजस्थान के अन्दर कांग्रेस की सरकार है और एक माली मुख्यमंत्री है, इसके बावजूद अलवर के थाना ग़ाज़ी तालुक़ा में कई दबंगों ने बारी-बारी एक नयी-नवेली दलित दुल्हन का अपहरण करके उसके पति के सामने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया तथा धमकाने के लिए अपनी घिनावनी हरकत का वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। इस पाशविकता का प्रदर्शन करनेवाले दरिन्दों का सम्बन्ध भी अपने आपको पिछड़े कहनेवाले गुर्जर समाज से है। इस शर्मनाक घटना को चुनावों के चलते पांच दिनों तक दबा दिया गया और फिर उसके बाद पुलिस ने शिकायत दर्ज की। अभी यह मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि अलवर ही में गर्भवती बहू को प्रसूति के लिए लानेवाली सास के साथ हस्पताल के दो कर्मचारियों ने बलात्कार कर दिया। अपराधियों ने बलात्कार के बाद पीड़िता को डराने के लिए उसके नवजात पोते को जान से मारने की धमकी दे दी। ये शर्मसार कर देनेवाली घटनाएं एक ऐसे समय में घटित हुोती हैं जब कि देश भर में लोकतंत्र का उत्सव मनाया जा रहा है तथा हर राजनैतिक पार्टी दलितों से हमदर्दी का ढोंग रचा रही है।
दलितों के बारे में खोखले शब्दों को अगर परे भी कर दिया जाए, तो मोदी राज में उनकी दुर्दशा अधिक बिगड़ी ही है। इस बीच क़ानून-व्यवस्था इस प्रकार बिगड़ी है कि जनसाधारण के दिल से क़ानून का सम्मान ही समाप्त हो गया है। जिसके मन में जब आया, उसने जिसको चाहा मौत के घाट उतार दिया, भीड़ द्वारा किसी को पीट-पीटकर मार डालना तो जैसे आम बात हो गयी। इस पाशविकता का अधिकतर शिकार मुसलमान हुए, परन्तु अन्य वर्ग भी इसकी चपेट में आ गये, इसलिए कि समाज के अन्दर जब घृणा की आग भड़कायी जाती है तो कोई भी उसकी चपेट में आ सकता है। इसी महीने बिहार के अररिया ज़िला में 44 वर्षीय महेश यादव को राबर्ट्स गंज थाना के हरिपुर गांव में एक भीड़ ने मवेशी चुराने के सन्देह में पीट-पीटकर मार डाला। पाकिस्तान को असभ्य देश कहा जाता है, लेकिन वहां के निवासियों ने भारतीय सेना के पायलेट अभिनन्दन के साथ ऐसा पाशविक व्यवहार नहीं किया। इससे फ़िलहाल देश की नैतिक स्थिति का पता चलता है। पिछले वर्ष दिसम्बर में भी अररिया से मवेशी चोरी के सन्देह के आधार पर लगभग 300 लोगों ने मुहम्मद क़ाबिल पर हमला कर दिया था। अगर मुहम्मद क़ाबिल पर हमला करनेवालों को सज़ा दी जाती, तो महेश यादव पर यह समय न आता।
बिहार आम तौर पर हिंसा का गढ़ समझा जाता है, परन्तु उत्तराखण्ड तो तथाकथित सभ्य ब्राह्मणों का इलाक़ा है। वहां पर भी हाल ही में एक दलित युवक को, कथित रूप से निर्ममतापूर्वक पिटाई करके, मार डाला गया। टिहरी ज़िले में जान गंवानेवाले 23 वर्षीय जितेन्द्रदास का क़ुसूर केवल इतना था कि उसने तथाकथित ऊँची जाति के सभ्य लोगों के बराबर वाली कुर्सी पर बैठकर खाना खाने का दुस्साहस किया था। जितेन्द्र की बहन पूजा के अनुसार यह घटना एक दलित के विवाह समारोह में घटित हुई। वे बदमाश दलित के यहां दावत उड़ाने के लिए तो निर्लज्जतापूर्वक पहुंच गये, मगर एक दलित युवक को अपने सामने खाते देखकर पुकार उठे, ”यह नीच हमारे साथ खाना नहीं खा सकता। खाएगा तो मरेगा!“ पूरे परिवार का आर्थिक भार उठाने वाले जितेन्द्र की हत्या ने सारे परिवार को कठिनाई में डाल दिया है। इस मामले में एस.सी.एस.टी ऐक्ट के अन्तर्गत मामला दर्ज कर लिया गया, परन्तु कोई कार्रवाई नहीं हुई। टिहरी के इलाक़े में 6 महीने पूर्व भी शराब न देने के जुर्म में एक दलित युवक की पिटाई की गयी थी, जो अभी तक लापता है। पुलिस इस संगीन वारदात की एफ़.आई.आर. तक करने को तैयार नहीं है। इस प्रकार के अत्याचार ‘मुझे गोली मार दो!’ जैसे ‘जुमलों’ से कम नहीं होंगे, बल्कि अपराधियों को दण्डित करने ही से रुकेंगे।
आरक्षण तथा उसके आधार पर मिलनेवाली सरकारी सुविधाओं को इन अत्याचारों की रोकथाम का उपाय समझा जाता है, परन्तु 1985 के बैच के आई.ए.एस. अधिकारी जगमोहन सिंह राजू ने पिछले सप्ताह एस.सी.एस.टी. ऐक्ट के अन्तर्गत चार व्यक्तियों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की तो पुलिस ने इससे इनकार कर दिया। मजबूरन राजू को पिछड़ी जाति के राष्ट्रीय आयोग से सम्पर्क करना पड़ा। राजू को शिकायत है कि 2015 से उसका प्रमोशन रुका हुआ है और उसके जूनियर आगे बढ़ चुके हैं। राजू के साथ यह भेदभाव उसी जाति के कारण हो रहा है। राजू को लगता है कि उसकी तथा उसके परिवार की जान ख़तरे में है। उसके मित्रों ने चेतावनी दी है कि उसके हाथ-पैर तोड़ दिये जाएंगे। जगमोहन राजू को यह ख़तरे प्रधानमंत्री के आॅफ़िस से हैं। 34 वर्षों तक उच्च पदों पर आसीन रहनेवाले सरकारी अधिकारी का अगर यह हाल है, तो इससे आम दलितों की दुर्दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मुसलमानों के बारे मंे तो ख़ैर यह कहा जाता है कि वे भाजपा को समर्थन न देने की सज़ा पाते हैं, परन्तु यह दलित समाज तो बड़ी आसानी से फासीवादियों के हाथों का खिलौना बन जाता है, फिर उसको किस बात की सज़ा मिलती है?
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