नयी दिल्ली, 10 नवम्बर : अयोध्या विवाद पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर कानूनविद् और हैदराबाद के नलसार विधि विश्वविद्यालय के कुलपति एवं ‘कंसोर्टियम आफ नेशनल लॉ यूनिवसिर्टिज’ के अध्यक्ष प्रोफेसर फैजान मुस्तफा का कहना है कि यह निर्णय अपने आप में विरोधाभासी है और इससे भविष्य में परेशानी होने की आशंका है। उनका कहना है कि न्यायालय ने व्यावहारिक समझ दिखाते हुए झगड़े को खत्म करने के लिए जमीन को हिन्दू पक्षकारों को दिया। साथ में इस दलील को भी खारिज कर दिया कि मुगल बादशाह बाबर ने राम मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी जो मुसलमानों के लिए बड़ी जीत है।
इस सवाल पर कि अयोध्या पर आये फैसले को वह किस नजर से देखते है, प्रो मुस्तफा ने कहा,‘‘अदालत ने व्यावहारिक वास्तविकता को ध्यान में रखा है। अगर विवाद का फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में दे दिया जाता तो भी वहां मस्जिद बनाना लगभग नामुकिन था और यह झगड़ा चलता रहता। इस मसले को हल करते हुए न्यायालय ने विश्वास को अहमियत देते हुए विवादित स्थल ट्रस्ट को दे दिया जहां मंदिर बनाया जाएगा। मैं उम्मीद करता हूं कि यह झगड़ा अब खत्म हो जाएगा। फैसला तथ्यों के आधार पर नहीं बल्कि आस्था के आधार पर दिए जाने संबंधी कुछ पक्षों की राय पर प्रो मुस्तफा ने ‘‘भाषा’’ से विशेष बातचीत में कहा, ‘‘पहले अदालत ने कहा था कि आस्था के नाम पर हम संपत्ति विवाद को हल नहीं कर सकते हैं और फिर अदालत ने आस्था के नाम पर ही संपत्ति को हिन्दू पक्षकारों को दे दिया। अदालत के फैसले की पहली लाइन में ही पक्षकारों को दो समुदाय माना गया। इसे हिन्दू मुस्लिम नजरिए से देखना सही नहीं है।
यह अयोध्या के मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच स्थानीय संपत्ति का मुद्दा था। इस पर राजनीति हुई और इसे बाद में राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया गया।’’ फैसले की कमियों पर प्रो मुस्तफा ने कहा, ‘‘अदालत ने एक पक्ष पर साक्ष्य का बोझ बहुत ज्यादा रखा और कहा कि 1528 से 1857 तक यह साबित कीजिए कि इस पर आपका विशिष्ट अधिकार था। अदालत इसी फैसले में कहती है कि 1949 में बहुत उल्लंघन हुआ और मस्जिद में मुसलमानों को नमाज नहीं पढ़ने दी गई। जब आपने इसको मस्जिद मान लिया तो फिर स्वाभाविक है कि उसमें नमाज होती थी। अगर उसमें नमाज नहीं होती थी तो यह साबित करने की जिम्मेदारी दूसरे पक्ष पर होनी चाहिए थी। अगर कोई मस्जिद इस्तेमाल नहीं होती है तो रिकार्ड में लिखा जाता है कि अनुपयोगी मस्जिद। यह तो कहीं नहीं लिखा गया। 1528 से लेकर 1857 का काल तो मुस्लिम शासन का था।
उस समय में तो वहां निश्चित तौर पर नमाज हो रही होगी । कानून के जानकार के तौर पर मुझे फैसले में विरोधाभास लगता है। ’’ उन्होंने कहा कि फैसला साक्ष्य कानून और संपत्ति कानून के बारे में जिस तरह के नियम बनाता है, वो भविष्य में परेशानी खड़ी कर सकते हैं। अदालत ने व्यावहारिक समझ दिखाई है और इतने बड़े मसले को हल कर दिया है लेकिन कानून के शासन के लिए, धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक लोकतंत्र के लिए यह फैसला कानून के प्रावधानों के अनुरूप नहीं लगता है।फैसले के बाद मुस्लिम पक्ष के पास उपलब्ध कानूनी विकल्पों पर विधि विशेषज्ञ प्रो . मुस्तफा ने कहा, ‘‘उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद कानूनी विकल्प पुनर्विचार का होता है। मुझे नहीं लगता कि इस मामले में पुनर्विचार की याचिका दायर करनी चाहिए। मैं समझता हूं कि इस मामले में मुसलमानों की बड़ी जीत हुई है। हिन्दुओं का उन पर सबसे बड़ा इल्जाम था कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई है, उसे उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया है। इसका मतलब है कि बाबर ने किसी मंदिर को गिराकर यह मस्जिद नहीं बनाई ।
यह मुख्य दलील थी, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया।’’ उन्होंने कहा, हिन्दू पक्ष का दावा था कि जन्मस्थान ही अपने आप में एक कानूनी व्यक्ति है, इसे भी अदालत ने खारिज कर दिया। अदालत ने यह बात मान ली कि 1949 में मस्जिद में मूर्तियां रखना गैर कानूनी है। अदालत ने यह भी कहा है कि 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिराना भी कानून के खिलाफ था और कानून के शासन पर हमला था। इसके बाद मथुरा . काशी जैसे दूसरे विवादास्पद मामले उठाए जाने की संभावना के बारे में उनका कहना था, ‘‘जब व्यावहारिक फैसला देने की कोशिश की गई तो अदालत को यह बात कहनी चाहिए थी कि इस मुददे को किसी और मामले में नहीं उठाया जाए।’’ प्रो मुस्तफा ने कहा, ‘‘ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कहा है कि काशी-मथुरा अभी उनके एजेंडे में नहीं हैं। हो सकता है, बाद में हों। न्यायालय ने पूजास्थल अधिनियम का जिक्र करते हुए कहा है कि यह धर्मनिरपेक्षता को बरकरार रखता है। उम्मीद है कि इस प्रकार कोई नया मुद्दा नहीं उठाया जाएगा।’’
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