Watan Samachar Exclusive:
जमीयत उलेमा ए हिंद की तरफ से मदरसों में मॉडर्न एजुकेशन (आधुनिकीकरण) की शिक्षा दिए जाने के प्रस्ताव के बाद देश और दुनिया में एक नई बहस शुरू हो गई है. जहां दुनिया की बड़ी आबादी इसकी प्रशंसा कर रही है वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसके विरुद्ध हैं.
35 साल बाद आई समझ
इस पूरे मामले पर मीडिया से अनौपचारिक बातचीत में कमाल फारुकी (शिक्षाविद) ने चौकाने वाली बात कही. उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि आज से कोई 35 साल पहले मैंने मौलाना असद मदनी की उपस्थिति में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में जमीअत उलमा हिंद की ओर से आयोजित एक कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा था कि मदरसों में मॉडर्न एजुकेशन यानी दीन के साथ दुनिया की शिक्षा दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि उस वक्त हमें चुप करा दिया गया था. क्योंकि हमारे बड़ों का आदेश था इसलिए हमने उस पर कुछ नहीं कहा लेकिन हम ने मुहिम जारी रखा और मुझे खुशी है कि 35 साल बाद ही सही लेकिन मौलाना महमूद मदनी की उपस्थिति में मदरसों में मॉडर्न एजुकेशन को ऐड करने का फैसला किया है.
आरिफ मोहम्मद खान भी कह चुके हैं कि 30 साल बाद मुस्लिम संगठनों को आती है समझ
ज्ञात रहे कि 2012 में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के उस वक्त के प्रवक्ता क़ासिम रसूल इलियास का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने इस बात को स्वीकारा था कि उस वक्त (शाह बानों वाले मामले में) भूल हुई थी जिसके बाद आरिफ मोहम्मद खान जो केरल के मौजूदा गवर्नर हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं ने कहा था दुख की बात यह है कि यह लोग देर से समझते हैं. खुशी की बात यह है कि इन लोगों को समझ तो आती है लेकिन दुख की बात यह है कि समझने में 30 साल का पीरियड चाहिए.
गलती की सजा
कमाल फारुकी और आरिफ मोहम्मद खान की बातों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कहीं ना कहीं मुसलमान 35 साल या 30 साल पीछे चल रहे हैं और उनको 30 या 35 साल बाद एहसास होता है कि उन्हों ने 35 साल पहले कुछ नादानी या गलती की थी इसका खामियाजा उन को भुगतना पड़ रहा है.
दीनी शिक्षा क्यों जरूरी?
जानकार मानते हैं कि दीनी शिक्षा जरूरी है और शिक्षा के साथ साथ संस्कार भी जरूरी है. जानकारों का यह भी मानना है कि वेस्टर्न एजुकेशन में शिक्षा के साथ बहुत सी जगहों पर संस्कार नहीं पाया जाता जिसकी वजह से काफी परेशानियां उत्पन्न होती हैं, लेकिन जानकारों का यह भी मानना है कि शिक्षा के साथ-साथ संस्कार पाया जाना काफी अहम है और इस्लाम पूरा संस्कार का धर्म है जिसमें कूट-कूट कर इंसानियत भरी हुई है. अगर मदरसे के बच्चे अंग्रेजी और दूसरी भाषाओँ से अवगत होंगे तो वह दुनिया के सामने इस्लाम को और बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकेंगे इसलिए जमीअत उलमा हिंद के इस फैसले को लोग काफी सराहा रहे हैं.
मॉडर्न एजुकेशन को लिकर मुस्लमान कई गुटों में.
अहम बात यह है कि मुसलमानों में मौजूद अहले हदीस स्कूल ऑफ थॉट और शिया स्कूल ऑफ थॉट के लोग पहले से ही मॉडर्न एजुकेशन को इस्लामिक एजुकेशन के साथ अडॉप्ट किये हुए हैं जहां शिक्षा और संस्कार दोनों पर फोकस किया जाता है.
इतिहास-अमुयू और मॉडर्न एजुकेशन
इतिहास के पन्ने इस बात के साक्षी हैं कि स्माइली लोगों ने खामोशी से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को एक बड़ी जमीन डोनेट की थी. इसी तरह साउथ में बहुत सी जगहों पर मौजूद शाफ़ेई school ऑफ़ thought के लोग दीनी शिक्षा और संस्कृति के साथ-साथ मॉडर्न एजुकेशन पर भी काफी फोकस कर रहे हैं. यहां से इंजीनियर ग्रेजुएट और अच्छे डॉक्टर निकल रहे हैं.
इस्लाम और स्वास्थ्य
जानकारों का यह भी मानना है कि अगर हदीस के बच्चों को इंग्लिश अच्छी तरह पढ़ा दी जाए तो वह काफी बड़ा रोल play कर सकते हैं. इस के बाद अगर वह एमबीबीएस भी कर लें तो उनसे अच्छा डॉक्टर कोई नहीं हो सकता क्योंकि हदीस के स्वास्थ्य और चिकित्सा पर आधारित चैप्टर काफी अनमोल हैं और दुनिया को इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है.
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